भारतीय वास्तु शास्त्र तथा इसके विज्ञान आधारित मूल नियम—–

आधुनिक युग में, आज वास्तु शास्त्र वैज्ञानिकता के आधार पर एक नया मोड ले चुका है, क्यों कि पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध नें मानव जाति को कुछ अधिक ही प्रभावित किया है, जिससे कि अपनी मूलभूत धरोहर प्राचीन ज्ञान को आज हम विज्ञान(साईंस) के नाम से संबोधित करने लगे हैं. किन्तु जब प्राचीन वास्तु ज्ञान का आज के विज्ञान नें अनुसंधान किया तो पाया कि कभी प्राचीन वास्तु कला के जो नियम निहित किए गए थे, वें निश्चित ही मानव जीवन की दृ्ष्टि से बेहद उपयोगी थे.

(वास्तु-पुरूष)—-

भारत भूमी के प्राचीन ऋषि तत्वज्ञानी थे और उनके द्वारा इस कला को तत्व ज्ञान से ही प्रतिपादित किया गया था. आज के युग में विज्ञान नें भी स्वीकार किया है कि सूर्य की महता का विशेष प्रतिपादन सत्य है, क्योंकि ये सिद्ध हो चुका है कि सूर्य महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, पुरूषार्थ और विभिन्न महानता मानव में परिणत होने लगती है. आज भी वैज्ञानिक मानते हैं कि सूर्य की अल्ट्रावायलेट रश्मियों में विटामिन डी प्रचूर मात्रा में पाया जाता है, जिनके प्रभाव से मानव जीवों तथा पेड-पौधों में उर्जा का विकास होता है.
इस प्रभाव का मानव के शारीरिक एवं मानसिक दृ्ष्टि से अनेक लाभ हैं. मध्यांह एवं सूर्यास्त के समय उसकी किरणों में रेडियोधर्मिता अधिक होती है, जो मानव शरीर, उसके स्वास्थय पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. अत: आज भी वास्तु विज्ञान में भवन निर्माण के तहत, पूर्व दिशा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. जिससे सूर्य की प्रात:कालीन किरणें भवन के अन्दर अधिक से अधिक मात्रा में प्रवेश कर सकें और उसमें रहने वाला मानव स्वास्थय तथा मानसिक दृष्टिकोण से उन्नत रहे.

वास्तु नियम के अनुसार पूर्व एवं उत्तर दिशा में अधिक से अधिक दरवाजें, खिडकियाँ रखी जानी चाहिए. ये भाग अधिक खुले होने से हवा और रोशनी अधिक मात्रा में प्रवेश करती है. प्रवेश करने वाली हवा दक्षिण-पश्चिम के कम दरवाजों-खिडकियों से धीरे धीरे बाहर निकलती है, जिससे कि भवन का वातावरण स्वच्छ, साफ एवं प्रदूषण मुक्त होता है.

वास्तु नियम में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि दक्षिण-पश्चिम भाग हमेशा ऊँचा होना चाहिए एवं दीवारें मोटी बनानी चाहिए. साथ ही इस दिशा में सीढी इत्यादि का भार दिया जाना चाहिए. इसका उदेश्य है कि पृ्थ्वी जब सूर्य की परिक्रमा दक्षिण दिशा में करती है, तो सूर्य एक विशेष कोणीय स्थिति में होता है. अत: इस क्षेत्र में अधिक भार से संतुलन बना रहता है तथा ऊँची तथा मोटी दीवारें अधिक उष्मा से रक्षा करती हैं. इससे भवन में गर्मी में शीतलता एवं सर्दियों में उष्णता का अनुभव मिलता है.
इसी प्रकार वास्तु नियम में दक्षिण-पूर्वीय (आग्नेय) कोण में ‘अग्नेय उर्जा’—रसोई बनाने का प्रावधान किया गया, क्यों कि इस क्षेत्र में पूर्व से प्रात:कालीन ताजगी से भरी हवा एवं सूर्य रश्मियों का प्रवेश होता है, जिससे कि रसोई में रखे पदार्थ अधिक समय तक शुद्ध एवं ताजे बने रहें.

उत्तर क्षेत्र में विज्ञान अनुसार, पृ्थ्वी में चुंबकीय उर्जा सघन मात्रा में रहती है. इससे इस क्षेत्र को सबसे पवित्र माना है और इसी कारण पूजा स्थल, साधनास्थली का निर्माण इस स्थान में उचित कहा गया है.
वास्तु नियम में उत्तर-पूर्वी भाग में दैनिक उपभोग में आने वाले जल के स्त्रोत को बनाने का विधान निहित है. विज्ञान की भी इसके पीछे ये मान्यता है कि उससे वह प्रदूषण मुक्त हो जाता है और शुद्ध रहता है. वैज्ञानिक युग में इस सिद्धान्त को इलैक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम सिद्धान्त से प्रतिपादित किया गया.

दक्षिण दिशा में सिरहाना करने का महत्व प्रतिपादित है, जिसका मूल कारण पृ्थ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में पडने वाला प्रभाव है, क्यों कि सर्वविदित है कि चुम्बकीय प्रभाव उत्तर से दक्षिण की ओर रहता है. मानवीय जैव चुम्बकत्व भी सिर से पैर की ओर होता है. अत: सिर को उतरायण एवं पैरों को दक्षिणायण कहा गया है. यदि सिर उत्तर दिशा में रखा जाए तो पृ्थ्वी का उत्तरी ध्रुव मानव सिर के ध्रुव चुम्बकीय प्रभाव को अस्वीकार करेगा. इससे शरीर के रक्त संचार के लिए अनुकूल चुम्बकीय लाभ नहीं होगा.

इसको आधुनिक मस्तिष्क वैज्ञानिकों नें भी माना है कि मस्तिष्कीय क्रिया क्षमता का मूलभूत स्त्रोत अल्फा तरंगों का पृ्थ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन का संबंध आकाशीय पिंडों से है और यही वजह है कि वास्तु कला शास्त्र हो या ज्योतिष शास्त्र, सभी अपने अपने ढंग से सूर्य से मानवीय सूत्र सम्बंधों की व्याख्या प्रतिपादित करते हैं. अत: वास्तु के नियमों को, भारतीय भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रख कर, भूपंचात्मक तत्वों के ज्ञान से प्रतिपादित किया गया है. इसके नियमों में विज्ञान के समस्त पहलुओं का ध्यान रखा गया है, जिनसे सूर्य उर्जा, वायु, चन्द्रमा एवं अन्य ग्रहों का पृ्थ्वी पर प्रभाव प्रमुख है तथा उर्जा का सदुपयोग, वायु मंडल में व्याप्त सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों का आंकलन कर, उन्हे इस वास्तु शास्त्र के नियमों में निहित किया गया है.

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