जगत का पिता

तन पे भस्म लेप रखा है,

गले में डाल रखा भुजंग,
नीलकंठ ने गरल को पीकर,
बेरंग को भी दे दिया है रंग।
खुद की सुध की खबर नहीं है,
जहाँ को बाँटते धन दौलत,
मेवा और मिष्ठान बिना भी,
भक्तों की भक्ति में होते रत।

इक बिल्व का पत्र चढ़ाकर,
पूजा,अर्चन करते लोग,
भाँग,धतूरा और गंगा जल,
शिव के प्रिय है ये सारे भोग।

जगत का पिता,महादेव,शिव,
डम डम,डमरु वाले है,
प्रेममयी,श्रद्धा के बस भूखे,
शिव तो भोले,भाले है।

गंगा को जो धारण करते,
भक्तों के हर कष्ट वो हरते,
अपने भक्त की खातिर ये शिव,
काल के कोप से भी लड़ते।

नटराज,त्रिपुरारी,शिव,शंकर,
भक्तों पर रखना आशीष,
सुधा की धारा बरसाना जग पर,
पी जाना यूँ ही जगत के सारे विष।

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