क्या वास्तु द्वारा भाग्य में बदलाव संभव है?-


प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन आनन्दमय, सुखी व समृद्ध बनाने में हमेशा लगा रहता हैं। कभी-कभी बहुत अधिक प्रयास करने पर भी वह सफल नहीं हो पाता हैं। ऐसे में वह ग्रह शांति, अपने ईष्ट देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करता हैं। परन्तु उससे भी उसे आशाअनुरूप फल प्राप्त नहीं होने पर वह अपने भाग्य को कोसता है। जैसा की सर्वविदित है कि भाग्य और वास्तु का गहरा सम्बन्ध हैं यदि आपका भाग्य (कुण्डली) उत्तम हैं और यदि वास्तु (निवास) में कुछ त्रुटियां हैं तो मनुष्य उतनी प्रगति नहीं कर पाता जितनी करनी चाहिए अर्थात मनुष्य की समृद्धि में भाग्य एवं वास्तु का बराबर-बराबर सम्बन्ध होता हैं।
हमारी भारतीय हिन्दू संस्कृ्ति अपने आप में एक ऎसी विलक्षण संस्कृ्ति रही है,जिसका प्रत्येक सिद्धान्त ज्ञान-विज्ञान के किसी न किसी विषय से संबंधित हैं और जिसका एक मात्र उदेश्य मनुष्य जीवन का कल्याण करना ही रहा है.मनुष्य का सुगमता एवं शीघ्रता से कल्याण कैसे हो ? इसका जितना गम्भीर विचार भारतीय संस्कृ्ति में किया गया है. उतना अन्यत्र कहीं नहीं मिलता.जन्म से लेकर मृ्त्युपर्यंत मनुष्य जिन जिन वस्तुओं एवं व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है, ओर जो जो क्रियाएं करता है,उन सभी को ऋषि-मुनि रूपी वैज्ञानिकों नें नितांत वैज्ञानिक ढंग से,सुनियोजित,मर्यादित एवं सुसंस्कृ्त किया है. ऎसी ही पूर्णत: विज्ञान सम्मत विद्या रही है—भारतीय वास्तु शास्त्र,जो कि भारत की अति प्राचीन विद्या है. विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में भी इस विद्या का उल्लेख मिलता है.पिछले कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि लोगों का ध्यान इस विद्या की ओर उन्मुख हुआ है
जन्मकुंडली के ग्रहों की प्रकृति व स्वभाव अनुसार सृजन प्रक्रिया बिना लाग लपेट के प्रभावी होती हैं और ऐसे में अगर कोई जातक जागरूकता को अपनाकर किसी विद्वान जातक से परामर्श कर अपना वास्तु ठीक कर लेता हैं तो वह समृद्धि प्राप्त करने लगता है। बने हुए भवनों एवं नवनिर्माण होने वाले भवनों में वास्तुदोष निवारण का प्रयास करना चाहिए बिना तोड़-फोड़ के प्रथम प्रयास में दिशा परिवर्तन कर अपनी दशा को बदलने का प्रयास करें।
क्या वास्तु सम्मत निमार्ण से भाग्य बदल जाता है? यह प्रश्न वास्तु के प्रचलन को देखकर सभी के मन में आता होगा। आजकल सभी यह सोचकर वास्तु सम्मत निर्माण करने लगे हैं कि शायद ऐसा करने से भाग्य बदल जाए। प्रत्येक व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर जानना चाहता है। कार्य कोई भी करें यदि वो सही ढंग लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है तो अपना फल पूर्ण और शुभ देता है और कार्य यदि अनुचित ढंग से शीघ्रता सहित बिना-सोचे समझें लक्ष्य को ध्यान में रखे बिना किया है तो फल अपूर्ण और अशुभता लिए हुए होता है। वास्तु शास्त्र रहने या कार्य करने के लिए ऐसे भवन का निर्माण करना चाहता है, जिसमें पंच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्, वायु और आकाश का सही अनुपात हो अर्थात् एक सन्तुलन हो, इसके अतिरिक्त गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का समुचित प्रबन्ध हो। जब ऐसा होगा तो उस भवन में रहने वाला व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक क्षमता उन्नत कर सकेगा। यह जान लें कि वास्तु का सम्बन्ध वस्तु या ऐसे निर्माण से है जिसमें पंचमहाभूत का सही अनुपात हो, जबकि भाग्य का सम्बन्ध कर्म से है। कर्म संचित होते हैं जोकि भाग्य में परिवर्तित हो जाते हैं। वर्तमान हमारे भूतकाल के कर्मों पर आधारित होता है। हमारा भविष्य उन कर्मों पर आधारित होगा जो हम वर्तमान में कर रहे हैं। कर्म गति टारे नहीं टरे, जैसा बोए वैसा ही पाए। कर्मों का फल शुभाशुभ जैसा भी हो हमें भोगना अवश्य पड़ेगा। इतना है कि सुकर्म कष्ट को कम कर देते हैं। प्रकृति में जब भी पंच तत्त्चों का असन्तुलन होता है तो प्रकृति में विकृति आ जाती है जिस कारण भूकम्प, ज्वालामुखी का फटना, तूफान, बाढ़, दैवीय आपदा आदि आती है।  
एक ज्योतिषी होने के नाते अक्सर लोगों द्वारा वास्तु विषयक जिज्ञासाओं/शंकाओं संबंधित विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछे जाते है. जिनमें अक्सर एक सवाल ये भी होता है कि वास्तु और भाग्य का जीवन में कितना संयोग है? क्या वास्तु के द्वारा भाग्य बदलना सम्भव है?  इस प्रश्न के उत्तर में हमें सिर्फ यह समझना चाहिए कि भाग्य का निर्माण किसी वास्तु से नहीं, अपितु इन्सान के कर्मों से होता है. वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन/मकान इत्यादि निर्मित करने पर कुवास्तुजनित कष्ट तो अवश्य दूर हो जाते हैं,परन्तु प्रारब्धजनित कष्ट तो इन्सान को हर स्थिति में भोगने ही पडते हैं.वास्तु का जीवन में उपयोग मात्र एक कर्म है और इस कर्म की सफलता का आधार वास्तुशास्त्रीय ज्ञान है,जो,एक विज्ञान के साथ-साथ एक धार्मिक विषय भी है. इसलिए वास्तु ज्ञान के साथ-साथ,वास्तु के पूजन और वास्तु के धार्मिक पहलुओं का भी हमें ज्ञान होना चाहिए.
सबसे पहले तो हमें ये जान लेना चाहिए कि किसी प्रकार की तोडफोड का नाम वास्तु नहीं है. वास्तु का अर्थ है ‘निवास करना'(वस निवासे) जिस भूमी पर मनुष्य निवास करते हैं, उसे ही वास्तु कहा जाता है. प्रकृ्ति द्वारा पाँच आधारभूत तत्वों—-भूमी,जल,अग्नि,वायु और आकाश से ही यह सम्पूर्ण ब्राह्मंड रचा गया है और ये पाँचों पदार्थ ही पंच महाभूत कहे जाते हैं. इन पंच तत्वों के प्रभावों को समझकर,उनका सामंजस्य बनाए रखे हुए,उनके अनुसार अपने भवन के आकार-प्रकार से,मनुष्य अपने जीवन को अधिक सुखी एवं सुविधासम्पन्न बना सकता है. दिशाओं के अनुसार भवनों की स्थिति और विन्यास का उसमें निवास करने वालों के जीवन पर सीधा एवं स्पष्ट प्रभाव पडता है. 
सूर्य,चन्द्रादि अन्य ग्रहों तथा तारों आदि का पृ्थ्वी के वातावरण पर क्या प्रभाव पडता है ? अति प्राचीन काल में इसका पर्याप्त अध्ययन-मनन करने के उपरान्त ही अनुभव के आधार पर इस शास्त्र का जन्म हुआ है. सूर्य इस ब्राह्मंड की आत्मा है और उर्जा का मुख्य स्त्रोत. सूर्य और अन्य तारों से प्राप्त उष्मा और प्रकाश,समस्त आकाशीय पिंडों की परस्पर आकर्षण शक्ति,पृ्थ्वी पर उत्पन चुम्बकीय बल क्षेत्र और इस प्रकार के अन्य भौतिक कारकों का पृ्थ्वी की भौतिक दशा,वातावरण और जलवायु पर निश्चित प्रभाव पडता है. और इन सब का अनुकूल,या प्रतिकूल प्रभाव पडता है मानव जीवन पर. अत: वास्तु शास्त्र का ज्योतिष और खगोल से अति निकट सम्बंध है. मनुष्य के रहन-सहन को बहुत हद तक, ज्योतिष और खगोल संबंधी कारक प्रभावित करते हैं. अत: वास्तु शास्त्र के समस्त सिद्धान्त ज्योतिष विद्या पर आधारित हैं. किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य करने से पूर्व इन सब सिद्धान्तों पर भली प्रकार से विचार कर लेना ही मनुष्य के लिए कल्याणकारी है…….
“वास्तु शास्त्रं प्रवक्ष्यामि लोकानां हित काम्याया”

बहुत से लोग ऎसे भी होते हैं जो कि जीवन में वास्तु इत्यादि को कोई महत्व नहीं देते, बल्कि अच्छी-बुरी कैसी भी परिस्थिति के लिए सिर्फ निज भाग्य को ही सर्वोपरी मानते हैं. ये ठीक है कि भाग्य सर्वोपरी है, बल्कि भाग्य का महत्व तो विश्व की सभी संस्कृ्तियों में स्वीकारा गया है. चूंकि किसी भी व्यक्ति के भाग्य का निर्धारण किन्ही दैवीय शक्तियों द्वारा हमारे सौरमंडल के सूर्य चन्द्रादि नवग्रहों की रश्मियों के माध्यम से ही होता है, अत: इन पर किसी का कोई नियन्त्रण भी नहीं होता. इन कारकों का हमारे जीवन के विकास में अति महत्वपूर्ण स्थान है, परन्तु इनमें से बहुत सी विशेषताओं एवं गुणों को बदला नहीं जा सकता. यही व्यक्ति-विशेष की विशेषता के रूप में जाना जाता है.
अब अनेक व्यक्ति हैं, जो 
भाग्य जैसी किसी सत्ता में विश्वास नहीं करते. वो लोग अपने निज कर्म(पुरूषार्थ) को ही भाग्य निर्माता समझते हैं. परिश्रम या कर्म हमारे जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है. अब देखिए, हममें से कुछ की अभिरूचि अध्ययन में, कुछ का लगाव धन में होता है तथा कुछ ऎसे भी लोग होते हैं, जो आरामपूर्वक जिन्दगी व्यतीत करना चाहते हैं. हम अपने जीवन की धारा का प्रवाह अपने मनोवांछित मार्ग की ओर ले जाने का भरकस प्रयास करते हैं, किन्तु कोई एक ऎसी अदृ्श्य शक्ति तो है ही, जो इस प्रवाह का मार्ग परिवर्तित कर देती है. अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ती में लोग कुछ सीमा तक सफल भी होते हैं, किन्तु दुनिया में ऎसे लोगों की भी कोई कमी नहीं, जो इच्छा-पूर्ती में सफल नहीं हो पाते. ऎसे व्यक्ति अपनी असफलताओं के लिए भाग्य को दोषी ठहराने लगते हैं. वस्तुत: इसके लिए भी व्यक्ति के स्वयं के कर्म ही दोषी हैं, न कि भाग्य. भाग्य तो हमारे किए गए कर्मों का प्रतिसाद मात्र है. कर्म क्या है?—कर्म अर्थात हमारे द्वारा किए गए प्रयासों का नाम ही तो कर्म है. अपने जीवन में जिस भी सुख या दुख, सफलता-असफलता, हानि-लाभ को हम प्राप्त करते हैं, वो सब कुछ भी तो हमारे प्रयासों अर्थात कर्मों का ही तो परिणाम है.
कर्म का व्यक्ति के जीवन में कितना अधिक प्रभाव पडता है, यह इस एक उदाहरण के माध्यम से सहज ही समझा जा सकता है
———एक व्यक्ति जिसनें अपने लिए एक नए घर का निर्माण किया, लेकिन उस नए घर में प्रवेश करते ही उसे बुरी तरह से आर्थिक समस्यायों का सामना करना पडा. बेचारे का खाना-पीना, सोना-जागना तक हराम हो गया. हालाँकि उसने घर का निर्माण पूरी तरह से वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुरूप ही कराया, लेकिन फिर ऎसा क्या हुआ कि उसे उस घर में प्रवेश करते ही आर्थिक समस्यायों का सामना करना पड गया. देखा गया है कि इन्सान को जब किसी भीषण संकट, कष्ट, परेशानी का सामना करना पडता है तो अनायास ही मन में कईं प्रकार की शंकाएं, द्वन्द जन्म लेने लगते हैं. उस व्यक्ति के साथ भी यही हुआ…एक ओर तो उसके मन में ये विचार घर कर बैठा कि हो न हो मकान की ये जगह ही मनहूस है, दूसरी ओर ये शंका भी जन्म लेने लगी कि कहीं वास्तुशास्त्र के कारण ही तो ये सारी गडबड नहीं हुई ? 
खैर, वो व्यक्ति किसी की सलाह से मेरे पास आया. मैने जब उसके मकान का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन किया तो यही पाया कि मकान तो वाकई वास्तुशास्त्र अनुरूप बना है. सिर्फ एक ही दोष था कि उसका ईशान कोण 9. अंशों से कुछ अधिक था, जो कि लाभप्रद नहीं माना जाता. अब असमंजस ये कि क्या सिर्फ ईशान कोण ही उस व्यक्ति की समस्यायों का वास्तविक कारण है ? नहीं! वास्तव में मकान में ऎसा कोई दोष था ही नहीं, जिसे कि उसकी समस्यायों का वास्तविक कारण कहा जा सकता.
दरअसल व्यक्ति की व्यापारिक एवं आर्थिक स्थिति पर चर्चा के दौरान ये बात स्पष्ट हो पाई कि उसकी समस्यायों का एकमात्र कारण था—-निर्माण कार्य में अपनी क्षमता से काफी अधिक मात्रा में धन का नियोजन. वस्तुत: उसनें बैंकों से ऋण लेकर तथा अपने व्यापार में से बहुत सारी पूंजी निकालकर मकान के निर्माण में लगा दी, जिसके कारण उसे आर्थिक समस्यायों का सामना करना पड रहा था. अभी भी धन की कमी के चलते, मकान की ऊपरी मंजिल का निर्माण कार्य बीच अधर में लटका हुआ था. समस्या का मूल कारण तो अब एकदम सामने स्पष्ट था….सो, उसे यही समझाया कि इधर-उधर से पैसा उधार लेकर मकान पर लगाने का कोई औचित्य नहीं है. अब इस पर ओर धन लगाना बन्द कर दे, क्यों कि समस्यायों का कारण मकान नहीं, अपितु तुम्हारा कर्म (उपर्युक्त निर्णय न लेना) है. जब उसके पास पर्याप्त धन नहीं था, तो उसे घर के निर्माण में इतना अधिक पैसा नहीं लगाना चाहिए था. अत: यदि दोष का निराकरण करना है तो इस घर को बेच देना ही उचित रहेगा. अन्तत: उस व्यक्ति नें सलाह मानकर घर बेच दिया ओर ऋण चुकता करके कुछ पैसा अपने व्यापार में लगाकर शेष बची पूंजी से अपने लिए एक छोटा घर खरीद लिया. बस हो गया उसकी समस्यायों का निवारण…….
अब देखिए, ये ठीक है कि भाग्य का निर्माण किसी सर्वशक्तिमान ईश्वरीय सत्ता द्वारा किया जाता है, लेकिन उसने हमें यह स्वतन्त्रता तो प्रदान की ही हुई है कि हम स्वयं में सुधारकर अपनी इच्छा एवं कार्यों(कर्मों) द्वारा उत्तम जीवन व्यतीत कर सकें. कर्मों को मूल तत्व एवं अनुकूल वातावरण की सहायता की आवश्यकता होती है. यदि हम ज्योतिष, वास्तुशास्त्र के अनुरूप अपने भवन इत्यादि में कोई परिवर्तन करते हैं तो वो भी तो कर्म का ही एक हिस्सा है.किन्तु ये हो सकता है कि कभी किसी ग्रह इत्यादि के कुप्रभाव के कारण भी भवन-सम्बंधी किन्ही कठिनाईयों, परेशानियों का सामना करना पड जाए. तब ग्रह शान्ती तथा मन्त्र-यन्त्रादि का आश्रय लेकर ही इनसे मुक्ति पाई जा सकती है.
आज के जमाने में वास्तु शास्त्र के आधार पर स्वयं भवन का निर्माण करना बेशक आसान व सरल लगता हो, लेकिन पूर्व निर्मित भवन में बिना किसी तोड फोड किए वास्तु सिद्धान्तों को लागू करना जहाँ बेहद मुश्किल हैं, वहाँ वह प्रयोगात्मक भी नहीं लगता. अब व्यक्ति सोचता है कि अगर भवन में किसी प्रकार का वास्तु दोष है, लेकिन उस निर्माण को तोडना आर्थिक अथवा अन्य किसी दृ्ष्टिकोण से संभव भी नहीं है, तो उस समय कौन से ऎसे उपाय किए जाएं कि उसे वास्तुदोष जनित कष्टों से मुक्ति मिल सके.
वास्तुशास्त्र प्रकृति से पूर्ण लाभ प्राप्त करने की व्यवस्था करता है न कि भाग्य को बदलने की। वास्तु व्यक्ति की शक्ति और ऊर्जा को उन्नत कर सकता है। वास्तु भाग्य के फल को प्राप्त करने में उचित वातावरण की व्यवस्था कर सकता है। भाग्य यदि आपको फल में .00 में से 70 प्रतिशत परिणाम पाने की क्षमता देता है तो आप उचित वातावरण में वास्तु सम्मत भवन में रह रहे हैं तो भाग्य द्वारा प्राप्त 70प्रतिशत को अधिक मात्रा में पा सकते हैं क्योंकि आप वास्तु सम्मत भवन में रहकर मानसिक एवं शारीरिक रूप से उन्नत जो हो चुके हैं और अवसर को पकड़ने की सामर्थ्य भी बढ़ चुकी है। भाग्य का सम्बन्ध कर्मों से है। जैसे कर्म होंगे वैसा फल होगा। कर्म अनुचित तो फल भी अशुभ और कार्य उचित तो फल भी शुभ। कर्मफल तीन प्रकार के होते हैं-संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण। इस जन्म या पूर्वजन्म में किए जा चुके कर्म संचित कहे जाते हैं। संचित कर्म का जो भाग भुक्त अवस्था में रहता है उसे प्रारब्ध(भाग्य/दैव) कहते हैं और जो कर्म वर्तमान में कर रहे हैं या भविष्य में करने हैं उन्हें क्रियमाण कहते हैं। क्या भाग्य को बदला जा सकता है? जो कर्म अपरिवर्तनीय हैं और उनका फल दैवीय शक्ति या भाग्यानुरूप मिलना आवश्यक है वे कदापि परिवर्तित नहीं किए जा सकते हैं। ऐसे कर्मों का फल अशुभ होता है और भोगना ही पड़ता है। जो कर्म परिवर्तनीय हैं वे अशुभ होते हैं और उपायों द्वारा टाले जा सकते हैं। वे कर्म जो शुभाशुभ अर्थात् मिश्रित हैं और यह बता पाना कठिन होता है कि किसका प्रभाव अधिक है दैवीय शक्ति का या पुरुषार्थ का। ये उचित आराधना द्वारा शान्त किए जा सकते हैं। अन्ततः यह कहा जा सकता है कि वास्तु सम्मत निर्माण से भाग्य बदला नहीं जा सकता है। वास्तु तो आपकी सामर्थ्य या ऊर्जा को बढ़ा सकता है। समुचित स्वास्थ्य मानसिक सबलता और भरपूर आत्मविश्वास देता है। जब यह है और भाग्य भी अवसर दे रहा है तो ऐसे में वास्तु का सहयोग फल को अधिक अनुपात में पकड़ने में सहायक है। फल अधिक मात्रा में मिलेगा तो उन्नति भी अधिक होगी। अधिक उन्नति और अधिक फल जीवन के स्तर को उठाने में सहायक है। भाग्य भी पूर्णतः नहीं बदला जा सकता है और वास्तु भी भाग्य को बदल नहीं सकता है। वास्तु भाग्य से अधिक अनुपात में पाने का सहायक है। भाग्य जो भी फल दे यदि वह शुभ है और वास्तु सम्मत भवन में रह रहे हैं तो उसे अधिक अनुपात में पा सकेंगे। यदि भाग्य अशुभ फल दे रहा है और भवन भी वास्तु सम्मत नहीं है तो अधिक दुःख व तनाव मिलेगा।
कुल मिलाकर प्रकृति और शरीर में पंचमहाभूतों का समुचित मिश्रण है जिस कारण दोनों ही सन्तुलित एवं स्वस्थ रहते हैं। पंच महाभूतों के असन्तुलन से प्रकृति और व्यक्ति का शरीर दोनों ही अस्वस्थ हो जाते हैं जिससे प्राकृतिक प्रकोप जगत् में आते हैं और जन व धन की हानि होती है। इसी प्रकार शरीर भी अस्वस्थ हो जाए तो उसके समस्त कार्य जहां के तहां रुक जाते हैं और उसे चहुं ओर से जो लाभ हो रहा होता है वह बन्द हो जाता है, मूलतः उसके सम्बन्ध अपने आसपास की प्रकृति से टूट जाते हैं और वह अपने को असन्तुलित, अस्वस्थ, अस्थिर और निराश सा होकर ऋणात्मक प्रभाव को पूर्णतः ओढ़ लेता है। फलस्वरूप उसे ऐसा लगता है कि वह भाग्यहीन हो गया है। अभी तक तो सबकुछ ठीक चल रहा था और यह अचानक ही सब कुछ अव्यवस्थित हो गया है। भाग्य और वास्तु अलग-अलग हैं! वास्तु का सम्बन्ध वस्तु की उचित व्यवस्था और प्रकृति के पंच महाभूतों के सन्तुलन से है। वास्तुशास्त्र प्रकृति से पूर्ण लाभ प्राप्त करने की व्यवस्था करता है न कि भाग्य को बदलने की। वास्तु व्यक्ति की शक्ति और ऊर्जा को उन्नत कर सकता है। वास्तु भाग्य के फल को प्राप्त करने में उचित वातावरण की व्यवस्था कर सकता है।
वास्तु क्या भाग्य बदल सकता है, अक्सर लोग ये बात पूछते हैं। इसके उत्तर में यही कहेंगे कि वास्तु भाग्य नहीं बदल सकता है। किन्तु भाग्य वृद्धि कर सकता है। भाग्य वृद्धि कर सकता है तो कैसे? भाग्य वृद्धि करने में वास्तु की भूमिका मात्रा इतनी है कि सबकुछ वास्तु सम्मत ढंग से निर्माण करें और बाद में उसमें रखी गई वस्तुएं भी वास्तु सम्मत ढंग से रखेंगे तो भाग्य वृद्धि अवश्य होगी। तब कहते हैं कि इसके कुछ नियम हैं जिनको अपनाना आवश्यक है। आवश्यक वास्तु नियम वास्तु सलाह वास्तु विद से लें तो बेहतर है। यदि आप वास्तुविद के पास नहीं जाना चाहते हैं तो वास्तु नियमों का पालन अवश्य करें।
जब आप वास्तु के उक्त दस मूल  नियमों को अपनाएंगे और इनके अनुरूप अपना भवन बनाएंगे तो आप निश्चित रूप से सुख संग जीवन जिएंगे और जीवन में भाग्य वृद्धि होने से समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी और जीवन बाधा रहित होगा। वास्तु सम्मत भवन सदैव धनहानि, रोग एवं कर्ज से ग्रस्त रखता है। इनसे मुक्त होना चाहते हैं तो वास्तु सम्मत भवन अवश्य बनाएं। यदि निर्मित भवन है तो उसमें देख लें कि वास्तु दोष तो नहीं हैं और यदि हैं तो उन दोषों को दूर कर लेना ही बेहतर है। वास्तु भाग्य नहीं बदलता है। वास्तु जीवन सरल, सहज एवं बाधाविहीन बना देता है। वास्तु आधृत भवन घर को साधन सम्पन्न एवं सुख का आगार बनाता है। जीवन में उन्नति को जीवन संगिनी बनाना चाहते हैं और जीवन को समृद्धि की डगर पर ले जाना चाहते हैं तो आपको चाहिए कि आप अपने भवन के दोषों को ढूंढ लें और यदि आप नहीं ढूंढ पा रहे हैं तो किसी वास्तुविद को बुला लीजिए वह आपको आपके भवन के दोष देखकर बता देगा। बाद में उसकी सलाह के अनुसार उसे ठीक करे लें। वास्तु भाग्य बदले या न बदले पर जीवन में सुख-वृद्धि भाग्य-वृद्धि होने के कारण हो ही जाती है।


वास्तु के मूल नियम ( बिना तोडफोड के वास्तुदोष निवारण के)इस प्रकार है—-
कुछ ऎसे उपाय, जिन्हे अपनाकर आप किसी भी प्रकार केवास्तुजनित दोषों से बहुत हद तक बचाव कर सकते हैं.

 4 X 4 इन्च का ताम्र धातु में निर्मित वास्तु दोष निवारण यन्त्र भवन के मुख्य द्वार पर लगाना चाहिए.
—-भवन के मुख्य द्वार के ऊपर की दीवार पर बीच में गणेश जी की प्रतिमा, अन्दर और बाहर की तरफ, एक जगह पर आगे-पीछे लगाएं.
—वास्तु के अनुसार सुबह पूजा-स्थल (ईशान कोण) में श्री सूक्त, पुरूष सूक्त एवं संध्या समय श्री हनुमान चालीसा का नित्यप्रति पठन करने से भी शांति प्राप्त होती है.
—-यदि भवन में जल का बहाव गलत दिशा में हो, या पानी की सप्लाई ठीक दिशा में नहीं है, तो उत्तर-पूर्व में कोई फाऊन्टेन (फौव्वारा) इत्यादि लगाएं. इससे भवन में जल संबंधी दोष दूर हो जाएगा.
—टी. वी. एंटीना/ डिश वगैरह ईशान या पूर्व की ओर न लगाकर नैऋत्य कोण में लगाएं, अगर भवन का कोई भाग ईशान से ऊँचा है, तो उसका भी दोष निवारण हो जाएगा.
—-भवन या व्यापारिक संस्थान में कभी भी ग्रेनाईट पत्थर का उपयोग न करें. ग्रेनाईट चुम्बकीय प्रभाव में व्यवधान उत्पन कर नकारात्मक उर्जा का संचार करता है.
—- भूखंड के ब्रह्म स्थल (केन्द्र स्थान) में ताम्र धातु निर्मित एक पिरामिड दबाएं . 
—-जब भी जल का सेवन करें, सदैव अपना मुख उत्तर-पूर्व की दिशा की ओर ही रखें.
—- भोजन करते समय, थाली दक्षिण-पूर्व की ओर रखें और पूर्व की ओर मुख कर के ही भोजन करें.
— दक्षिण-पश्चिम कोण में दक्षिण की ओर सिराहना कर के सोने से नींद गहरी और अच्छी आती है. यदि दक्षिण की ओर सिर करना संभव न हो तो पूर्व दिशा की ओर भी कर सकते हैं.
—-यदि भवन की उत्तर-पूर्व दिशा का फर्श दक्षिण-पश्चिम में बने फर्श से ऊँचा हो तो दक्षिण-पश्चिम में फ़र्श को ऊँचा करें.यदि ऎसा करना संभव न हो तो पश्चिम दिशा के कोणे में एक छोटा सा चबूतरा टाईप का बना सकते हैं.
—-दक्षिण-पश्चिम दिशा में अधिक दरवाजे, खिडकियाँ हों तो, उन्हे बन्द कर के, उनकी संख्या को कम कर दें.
—-भवन के दक्षिण-पश्चिम कोने में सफेद/क्रीम रंग के फूलदान में पीले रंग के फूल रखने से पारिवारिक सदस्यों के वैचारिक मतभेद दूर होकर आपसी सौहार्द में वृ्द्धि होती है.
—श्यनकक्ष में कभी भी दर्पण न लगाएं. यदि लगाना ही चाहते हैं तो इस प्रकार लगाएं कि आप उसमें प्रतिबिम्बित न हों, अन्यथा प्रत्येक दूसरे वर्ष किसी गंभीर रोग से कष्ट का सामना करने को तैयार रहें.
—-भवन की दक्षिण अथवा दक्षिण-पूर्व दिशा(आग्नेय कोण) में किसी प्रकार का वास्तुदोष हो तो उसकी निवृ्ति के लिए उस दिशा में ताम्र धातु का अग्निहोत्र(हवनकुण्ड) अथवा उस दिशा की दीवार पर लाल रंग से अग्निहोत्र का चित्र बनवाएं.
—-सीढियाँ सदैव दक्षिणावर्त अर्थात उनका घुमाव बाएं से दाएं की ओर यानि घडी चलने की दिशा में होना चाहिए. वामावर्त यानि बाएं को घुमावदार सीढियाँ जीवन में अवनति की सूचक हैं. इससे बचने के लिए आप सीढियों के सामने की दीवार पर एक बडा सा दर्पण लगा सकते हैं, जिसमें सीढियों की प्रतिच्छाया दर्पण में पडती रहे.
—- भवन में प्रवेश करते समय सामने की तरफ शौचालय अथवा रसोईघर नहीं होना चाहिए. यदि शौचालय है तो उसका दरवाजा सदैव बन्द रखें और दरवाजे पर एक दर्पण लगा दें. यदि द्वार के सामने रसोई है तो उसके दरवाजे के बाहर अपने इष्टदेव अथवा ॐ की कोई तस्वीर लगा दें.
—-आपके भवन में जो जल के स्त्रोत्र हैं, जैसे नलकूप, हौज इत्यादि, तो उसके पास गमले में एक तुलसी का पौधा अवश्य लगाएं.
—-अकस्मात धन हानि, खर्चों की अधिकता, धन का संचय न हो पाना इत्यादि परेशानियों से बचने के लिए घर के अन्दर अल्मारी एवं तिजोरी इस स्थिति में रखनी चाहिए कि उसके कपाट उत्तर अथवा पूर्व दिशा की तरफ खुलें.
—–भवन का मुख्यद्वार यथासंभव लाल, गुलाबी अथवा सफेद रंग का रखें. 
—-दक्षिण-पश्चिम दिशा में अधिक भार, या सामान रखें. इस कोण की भार वहन क्षमता अधिक होती है.
—–जिस घर की स्त्रियाँ अधिक बीमार रहती हों, तो उस घर के मुख्य द्वार के पास ऊपर चढती हुई बेल लगानी चाहिए. इससे परिवार के स्त्री वर्ग को शारीरिक-मानसिक व्याधियों से छुटकारा मिलता है.
—- रसोई यदि गलत दिशा में बनी है, और उसे आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व दिशा) में बनाना संभव न हो तो, गैस सिलेंडर अवश्य रसोई के दक्षिण पूर्व में रखें. रसोई को कभी भी स्टोर न बनाए, अन्यथा गृ्हस्वामिनी को तनाव, परिवार में किसी न किसी सद्स्य को रक्तचाप,मधुमेह, नेत्र पीडा अथवा पेट में गैस इत्यादि की कोई न कोई समस्या लगी रहेंगीं.
—-ध्यान रहे कि कभी भी अध्ययन स्थल के पीछे दरवाजा या खिडकी आदि नहीं होनी चाहिए; यदि है, तो मन अशांत रहता है, क्रोध एवं आक्रोश का सृ्जन होता है,जिससे कि सफलता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है. जब कि भवन की उत्तर-पूर्व दिशा अथवा संभव न हो तो अध्ययन स्थल के उत्तर-पूर्व में बैठकर पढने से सफलता अनुगामी बन पीछे पीछे चलने लगती है.
—- भूखण्ड के आकार में आयताकार या वर्गाकार को ही महत्त्व देना चाहिए।
 —- भूखण्ड क्रय करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आमने-सामने की भुजाएं बराबर हों।
—–भूखण्ड की चौड़ाई के दूगने से अधिक उसकी गहराई नहीं होनी चाहिए। 
—-दिशाएं दस हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, पूर्व-उत्तर, उत्तर-पश्चिम, दक्षिण-पश्चिम, दक्षिण-पूर्व। आकाश व पाताल। अब ध्यान रखने की बात यह है कि पूर्व, उत्तर, पूर्व-उत्तर दिशा नीची, खुली व हल्की होनी चाहिएं। इसकी अतिरिक्त अन्य दिशाओं की अपेक्षा ये दिशाएं आकाश मार्ग से भी खुली होनी चाहिएं। इसके विपरीत दक्षिण, पश्चिम, दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पश्चिम दिशाएं उंची, भारी व आकाश मार्ग से बन्द होनी चाहिएं। 
—–दक्षिण, दक्षिण-पूर्व अग्नि का स्थान है। इसमें अग्नि की स्थापना होनी चाहिए।
—– पूर्व, उत्तर दिशा जल का स्थान होने के कारण इस दिशा में जल की स्थापना होनी चाहिए। 
—-. देवता के लिए पूर्व-उत्तर दिशा सर्वोत्तम है, उत्तर एवं पूर्व भी शुभ होती है। ईशान में भवन का देवता वास करता है, इसलिए इस स्थान पर पूजा या देवस्थल अवश्य बनाना चाहिए। इसे खुला और हल्का बनाना चाहिए। इसमें स्टोर या वजन रखने का स्थान कदापि नहीं बनाना चाहिए। इस स्थान को साफ रखना चाहिए। इस स्थान को प्रतिदिन साफ रखने से जीवन उन्नतिशील एवं सुख-समृद्धि से परिपूर्ण होता है। 
—- पीने योग्य जल का भंडारण भी ईशान कोण में होना चाहिए। यह ध्यान रखें कि कभी भी आग्नेय कोण में जल का भंडारण न करें। गैस के स्लैब पर पानी का भंडारण तो कदापि न करें, वरना गृहक्लेश अधिक होगा। पारिवारिक सदस्यों में वैचारिक मतभेद होने लगेंगे। गृहक्लेश अधिक होता है तो किचन में चैक करें अवश्य जल और अग्नि एक साथ होंगे। अथवा ईशान कोण में वजन अधिक होगा या वह अधिक गंदा रहता होगा।
—– किचन दक्षिण या दक्षिण पूर्व में बनानी चाहिए। किचन में सिंक या हाथ धोने का स्थान ईशान कोण में होना चाहिए। रात्रिा में किचन में झूठे बर्तन नहीं होने चाहिएं। यदि शेष रहते हैं तो एक टोकरे में भरकर किचन से बाहर आग्नेय कोण में रखने चाहिएं।
—- गीजर या माइक्रोवेव ओवन आग्नेय कोण के निकट ही होने चाहिएं। इसी प्रकार मिक्सी, आटा चक्की, जूसर आदि भी आग्नेय कोण में दक्षिण दिशा की ओर रखने चाहिएं। यदि किचन में रेफ्रीजिरेटर भी रख रहे हैं तो उसे सदैव आग्नेय, दक्षिण या पश्चिम की ओर रखें। ईशान या नैर्ऋत्य कोण में कदापि नहीं रखना चाहिए। यदि रखेंगे तो परिवार में वैचारिक मतभेद अधिक रहेंगे और कोई किसी की सुनेगा नहीं। 
—- जीना एवं टॉयलेट तो कदापि पूर्व या उत्तर या पूर्व-उत्तर में न बनाएं।  
—–एक बात और बताना चाहूँगा, जो कि योग शास्त्र से संबंध रखती है, लेकिन किसी भी अध्ययनकर्ता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. वो ये कि अध्ययन करते सदैव आपकी इडा नाडी अर्थात बायाँ स्वर चल रहा होना चाहिए. इससे मस्तिष्क की एकाग्रता बनी रहकर किया गया अध्ययन मस्तिष्क में बहुत देर काल तक संचित रहता है. स्मरणशक्ति में वृ्द्धि होती है. अन्यथा यदि कहीं पिंगला नाडी अर्थात दाहिना स्वर चलता हो तो फिर वही होगा कि “आगा दौड पीछा छोड”. इधर आपने याद किया और उधर दिमाग से निकल गया. यानि मन की एकाग्रता और स्मरणशक्ति की हानि……इन उपरोक्त उपायों को आप अपनी दृ्ड इच्छा शक्ति व सकारात्मक सोच एवं दैव कृ्पा का विलय कर करें, तो यह नितांत सत्य है कि इनसे आप अपने भवन से अधिकांश वास्तुजन्य दोषों को दूर कर कईं प्रकार की समस्याओं से मुक्ति प्राप्त कर सकेंगें…….
वास्तु के नियमों का पालन कर हम सुख एवं समृद्धि में वृद्धि कर खुशहाल रह सकते हैं। यदि दिशाओं का ध्यान रखकर भवन का निर्माण एवं भूखण्ड की व्यवस्था की जाए तो समाज में मान सम्मान बढ़ता हैं। इस प्रकार भारतीय वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों का पालन कर हम सुख एवं वैभव की प्राप्ति कर सकते हैं।
जब आप वास्तु के नियमों को अपनाएंगे और इनके अनुरूप अपना भवन बनाएंगे तो आप निश्चित रूप से सुख संग जीवन जिएंगे और जीवन में भाग्य वृद्धि होने से समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी और जीवन बाधा रहित होगा। वास्तु सम्मत भवन सदैव धनहानि, रोग एवं कर्ज से ग्रस्त रखता है। इनसे मुक्त होना चाहते हैं तो वास्तु सम्मत भवन अवश्य बनाएं। यदि निर्मित भवन है तो उसमें देख लें कि वास्तु दोष तो नहीं हैं और यदि हैं तो उन दोषों को दूर कर लेना ही बेहतर है। वास्तु भाग्य नहीं बदलता है। वास्तु जीवन सरल, सहज एवं बाधाविहीन बना देता है। वास्तु आधृत भवन घर को साधन सम्पन्न एवं सुख का आगार बनाता है। जीवन में उन्नति को जीवन संगिनी बनाना चाहते हैं और जीवन को समृद्धि की डगर पर ले जाना चाहते हैं तो आपको चाहिए कि आप अपने भवन के दोषों को ढूंढ लें और यदि आप नहीं ढूंढ पा रहे हैं तो किसी वास्तुविद को बुला लीजिए वह आपको आपके भवन के दोष देखकर बता देगा। बाद में उसकी सलाह के अनुसार उसे ठीक करे लें। वास्तु भाग्य बदले या न बदले पर जीवन में सुख-वृद्धि भाग्य-वृद्धि होने के कारण हो ही जाती है।

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