आइये जाने ज्योतिष और रोग का सम्बन्ध–

आज विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली हैं।। सूक्ष्म से सूक्ष्म रोग को मशीन द्वारा पहचान लिया जाता हैं। परंतु फिर भी कई रोग एंव लक्षण आज भी रहस्य बने हुये हैं।। ज्योतिष शास्त्र द्वारा समस्त रोग पूर्व से ही जाने समझे जा सकते हैं, तथा उनका निदान किया जा सकता हैं।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं।

नुष्य का जन्म ग्रहों की शक्ति के मिश्रण से होता है. यदि यह मिश्रण उचित मात्रा में न हो अर्थात किसी तत्व की न्यूनाधिकता हो तो ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म होता है. शरीर के समस्त अव्यवों,क्रियाकलापों का संचालन करने वाले सूर्यादि यही नवग्रह हैं तो जब भी शरीर में किसी ग्रह प्रदत तत्व की कमी या अधिकता हो, तो व्यक्ति को किसी रोग-व्याधि का सामना करना पडता है. यूँ तो स्वस्थता,अस्वस्थता एक स्वाभाविक विषय है. परन्तु यदि किसी प्रकार का कोई भयानक रोग उत्पन हो जाए तो वह उस रोगग्रस्त प्राणी के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त कुटुम्बीजनों के लिए दु:खदायी हो जाता है.

इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व ..वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लग्न में स्थित राशि व इनसे संबंधित ग्रह किस प्रकार व किस अंग को पी़डा प्रदान करते हैं, आइए अब इसके बारे में जानते हैं…
यह तो सर्वविदित है कि मानवी सृ्ष्टि पंचभौतिक है और पंचभूतों (जल,अग्नि,वायु,पृ्थ्वी,आकाश) के गुण तथा प्रभाव से ही यह सर्वदा प्रभावित होती है। इन्ही पंचतत्वों का अन्तर्जाल कहीं पर सूक्ष्म तो कहीं पर स्थूल रूप से प्रकट एवं अप्रकट स्वरूप में विद्यमान रहता है। इनकी विशेषता यह भी है कि परस्पर सजातीय आकर्षण के साथ ही विजातीय सश्लेषण में विशिष्ट गुणों की उत्पत्ति भी देखी जाती है।
यदि जन्म पत्रिका में लग्र, सूर्य, चंद्र के चक्र बिंदुओ से शरीर के बाहरी, भीतरी रोग को आसानी से समझा जा सकता है। लग्र बाहर के रोगो का, तथा सूर्य भीतर के रोग, तेज, प्रकृति का तथा चंद्रमा मन उदर का प्रतिनिधी होता है।इन तीनों ग्रहों का अन्य ग्रहों से पारस्परिक संबध या शत्रुता ही शरीर के विभिन्न रोगो को जन्म देती है। जन्म पत्रिका का षष्ठ भाव रोग का स्थान होता है। शरीर में कब, कहां, कौन सा रोग होगा वह इसी से निर्धारित होता है। यहां पर स्थित क्रूर ग्रह पीड़ा उतपन्न करता है। उस पर यदि शुभ ग्रहो की दृष्टि न हो तो यह अधिक कष्टकारी हो जाता  
ग्रह,नक्षत्र,तारे,वनस्पतियाँ,नदी,पर्वत,समस्त जीव जन्तु इत्यादि इन्ही पंचभूतों से निर्मित हुए हैं।  वैदिक ज्योतिष की बात की जाए तो इसके आधार में “यथा पिंण्डे तथा ब्राह्मंडे” का यही एक सूत्र काम करता है। इसी आधार पर ग्रहों एवं नक्षत्रों से पृ्थ्वी पर उपस्थित प्राणियों के साथ आन्तरिक संबंध निरूपित होते हैं। अन्य पिण्डों के सापेक्ष सौरमंडल के पिण्डों का आपस में इतने निकट का सम्बंध है , जिस प्रकार से की एक मोहल्ले में बने हुए घरों का परस्पर सम्बंध एवं प्रभाव होता है।
इन ग्रह पिण्डों का पृ्थ्वी पर विद्यमान समस्त जड चेतन पदार्थों पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन तो हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा युगों पहले ही ज्ञात कर लिया गया था। केवलमात्र स्थूल प्रभाव ही नहीं अपितु उनके सूक्ष्मतम प्रभाव के सम्यक विवेचन का नाम ही वैदिक ज्योतिष है। 
यहाँ कुछ अन्य बातों पर प्रकाश डालते हें..
ज्योतिष सिद्धान्तानुसार प्रत्येक ग्रह प्राणी की संरचना के लिए निम्नलिखित तत्व प्रदान करता है:—
सूर्य:-आत्मा,प्रकाश,शक्ति,उत्साह,तीक्ष्णता,ह्रदय,जीवनीशक्ति,मस्तिष्क,पित्त एवं पीठ
चन्द्र:– जल,नाडियाँ,प्रभाव-विचार,चित्त,गति,स्तन,रूप,छाती,तिल्ली
मंगल:- रक्त,उत्तेजना,बाजू,क्रूरता,साहस,कान 
बुध:- वाणी,स्मरण-शक्ति,घ्राण-शक्ति,गर्दन,निर्णायक-मति,भौहें
गुरू:-ज्ञान,गुण,श्रुति,श्रवण-शक्ति,सदगति,जिगर,दया,जाँघ,चर्बी तथा गुर्दे
शुक्र:- वीर्य,सुगन्ध,रति,त्वचा,गुप्ताँग,गाल 
शनि:- वायु,पिंडली,टांगें,केश,दाँत
राहू:- परिश्रम,विरूद्धता,आन्दोलन/विद्रोही भावनाएं,शारीरिक मलिनता,गन्दा वातावरण
केतु:- गुप्त विद्या-ज्ञान,मूर्छा,भ्रम,भयानक रोग,सहनशक्ति,आलस्य

यदि ग्रह प्रभावी न हो तो रोग नहीं होते. यह स्थिति तब भी उत्पन हो सकती है,जब अपनी निश्चित मात्रा के अनुसार कोई ग्रह प्राणी पर प्रभाव न डाल पाए. उदाहरण के लिए—-सूर्य के साथ( विशेष अंशो में) कोई ग्रह स्थित हो तो वो ग्रह अपना प्रभाव नियमानुसार नहीं दे पाएगा. अब ग्रह जिस शक्ति का स्वामी है,वह शक्ति जब निश्चित मात्रा में जब प्राणी को नहीं मिल पाती तो ऎसे में विभिन्न जटिल स्थिति पैदा होना तय है. शुक्र सौन्दर्यानुभूति प्रदायक ग्रह है. यदि शुक्र सूर्य के प्रकाश में अस्त हो जाए तो वह व्यक्ति की सौन्दर्यशीलता में कमी करेगा ही. ऎसे ही,यदि मंगल सूर्य के प्रभाव क्षेत्र में हो तो व्यक्ति को रक्ताल्पता जैसी शारीरिक व्याधि का सामना करना पड जाता है. कहने का तात्पर्य ये है कि जो भी ग्रह सूर्य के प्रभाव में आकर निस्तेज होगा,शरीर में उस ग्रह से सम्बंधित तत्वों में न्यूनता रहेगी.

आज हम लोगों नें स्वास्थय की समस्या को बिल्कुल टेढी खीर बना डाला है, स्वाभाविकता और सादगी तो जैसे बिल्कुल ही दूर भाग चुकी है. हम प्रकृ्ति के नियमों को न तो समझते हैं और न ही समझ कर उन्हे मानते हैं. बस हम अपनी जिम्मेदारी कभी मौसम पर, कभी जलवायु पर, कभी चिकित्सकों पर तो कभी दवाओं पर—और सब से अधिक जीवाणुओं/विषाणुओं पर डाल देते हैं.
अन्य जीवों की अपेक्षा मानवी मस्तिष्क की जटिलता तो सर्वविदित ही है। ह्रदय की स्पन्दनशीलता(धडकनों) में विकृ्ति आने पर जिस ह्रदय रोग(heart attack) का आधुनिक तकनीक से निदान एवं इलाज किया जाता है, उसको सूर्य ग्रह के साथ संयुक्त कर मनुष्य के सूक्ष्म अवयव पर पडने वाले सूर्य के प्रभाव को स्वीकार किया गया है। सूर्य अग्नि तत्व का उत्पादक होने के कारण ह्रदय की उष्मा तथा उर्जा प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण ग्रह है। अब तक मेरा अनुभव यह है कि ग्रीष्म ऋतु में अग्नि तत्व की वृ्द्धि होने के कारण सबसे ज्यादा हार्ट अटैक भी इसी मौसम में होते हैं। यहाँ पश्चिम भक्तों को मेरा ये चैलेन्ज है कि इस कथन को गलत सिद्ध कर के दिखा दें तो भविष्य में इसी ब्लाग पर मेरा प्रत्येक लेख आपको ज्योतिष के विरोध में ही लिखा मिलेगा। सूर्य को जगत की आत्मा कहने के पीछे भी यही रहस्य छिपा हुआ है। 

प्रकृ्ति के नियमों के अनुरूप जीवन व्यतीत कर स्वस्थ रहना आसान है. स्वास्थय मानव शरीर की स्वाभाविक अवस्था है. मनुश्य, जैसा कि वह देखने में मालूम होता है, वैसा नहीं है. उससे कहीं ऊँचा है. वह पृ्थ्वी पर रोगी बने रहने के लिए नहीं आया है. वह स्वर्गीय है, ईश्वरीय है,दिव्य है. यदि वह अपने वास्तविक बडप्पन को समझे और उसी के अनुरूप जीवन व्यतीत करे तो वह कभी भी 
रोग ग्रस्त न हो. ऎसे ही जीने को जीना कहा जाता है और वैसा जीना, जिसमें हर रोज कोई न कोई रोग पीछे लगा है,मरने से भी बुरा है.
आज बनावटी सभ्यता के इस युग में प्रकृ्ति के ये नियम कहीं खो से गए हैं और किसी को समझाओ तो भी जल्दी से किसी को समझ में भी नहीं आते, या कहें कि कोई समझना ही नहीं चाहता. अगर कोई समझाने का प्रयास भी करता है तो सुनने वाले ताज्जुब करने और हँसने लगते हैं.

रोगों का कारण:-

सृ्ष्टि के प्रत्येक क्रियाकलाप की भान्ती ही रोगों के बारे में भी कार्य-कारण का सिद्धान्त काम करता है. जब रोग के सही कारण का पता चले तो ही हम उन कारणों को दूरकर रोग को जड-मूल से भगा सकते हैं. और यदि सच्चे कारण को न जाना, केवल इधर-उधर की या ऊपरी बातों को ही जानकर संतुष्ट हो गए, तो, एक के बाद एक दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा रोग बना रहेगा. और जैसा कि अब है, मैडीकल साईंस की इतनी उन्नति और गली गली में डाक्टरों की मौजूदगी के बावजूद दुनिया बीमारियों की खान बनी हुई है,और रहेगी भी.
सच पूछिए, तो सारे रोगों का एक ही कारण है—-शरीर में विकार का आ जाना. मनुष्य शरीर प्रकृ्ति के नियमों के अनुसार अपने को बराबर ही साफ सुथरा और स्वस्थ रखना चाहता है. हर रोज हम देखते हैं कि शरीर के अन्दर यह क्रिया बराबर ही जारी रहती है, जिससे भीतर की गन्दगी शरीर से बाहर निकाल दी जाती है. गन्दगी दूर होने के चार ढंग या रास्ते हैं—–फेफडे से सारे शरीर की एक खास तरह की गन्दगी लेकर सांस का बाहर आना, त्वचा से पसीने के रूप में गन्दगी का बाहर निकलना, शौच और मूत्र के रूप में गन्दगी का निष्काषन. यदि इन साधारण विधियों से शरीर के अन्दर का विकार नहीं निकल पाता तो शरीर द्वारा अन्य असाधारण ढंग काम में लाए जाते हैं. इस हालत में शरीर की शक्तियाँ तेजी के साथ दूसरे ढंगों से सफाई का काम शुरू कर देती हैं. या तो शरीर के अन्दर की गर्मी ज्वर के रूप में बढकर भीतर की गन्दगी को जला देती है या कुछ दस्त ज्यादा आते हैं या ऎसी ही कोई असाधारण बात होती है, जिससे शरीर के अन्दर की सफाई हो जाती हैं. याद रहे, शरीर की रक्षा के लिए विकारों का बाहर निकल जाना आवश्यक है. इसी से जब जब भी शरीर द्वारा अन्य असाधारण ढंग से सफाई अभियान चलाया जाता है—–तभी कहा जाता है कि रोग हुआ. वैसे तो रोग का नाम ही बुरा है, लेकिन इस तरह गहराई में जाकर देखने से पता चलता है कि शरीर की गन्दगी को बाहर निकाल फैंकनें के लिए, विकारों को जला देने के लिए, प्रकृ्ति की ओर से अपनाया गया ये साधारण ढंग अपने आप में एक जबरदस्त साधन हैं.
अब जो बात सबसे महत्वपूर्ण है, वो ये कि शरीर द्वारा भीतरी अशुद्धियों के निष्काषण के परिणाम स्वरूप उत्पन हुई जिन स्थितियों को हम रोग कहकर पुकारते है, दरअसल ये रोग नहीं होते—ये होती हैं असुविधाएं. रोग तो वह है जो मनुष्य के किसी अंग का कार्य-संचालन रोक देता है. एक दुबला-पतला आदमी अपना कार्य करने में कुशल है. यदि उसके समस्त अंग ठीक हैं तो वह स्वस्थ है और अगर एक हष्ट-पुष्ट मनुष्य अपने अंगों का प्रयोग ठीक से नहीं कर पाता तो वह रोगी माना जाएगा. 
ब्राह्मंड की भान्ती ही मानवी शरीर भी जल,पृ्थ्वी,अग्नि,वायु एवं आकाश नामक इन पंचतत्वों से ही निर्मित है और ये पँचोंतत्व मूलत: ग्रहों से ही नियन्त्रित रहते हैं. आकाशीय नक्षत्रों(तारों, ग्रहों) का विकिरणीय प्रभाव ही मानव शरीर के पंचतत्वों को उर्जस्वित करता है. इस उर्जाशक्ति का असंतुलन होने पर अर्थात जब भी कभी इन पंचतत्वों में वृ्द्धि या कमी होती है या किसी तरह का कोई “कार्मिक दोष” उत्पन होता है,तब उन तत्वों में आया परिवर्तन एक प्रतिक्रिया को जन्म देता है. यही प्रतिक्रिया रोग के रूप में मानव को पीडित करती है. एक रोग वह है,जिससे शरीर का कोई अंग सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाता. इसका समाधान करने के लिए भी कईं विज्ञान हैं,सैकडों प्रकार की औषधियाँ हैं,जिनके माध्यम से रोग मुक्त हुआ जा सकता है. परन्तु कईं ऎसे रोग भी हैं,जिनका सम्बंध आत्मा से होता है (यह विषय अत्यधिक विस्तार माँगता है, सो इसे कभी अलग से किसी पोस्ट के जरिए स्पष्ट करने का प्रयास रहेगा). उनका समाधान दवाओं तथा डाक्टरों,हस्पतालों के जरिए नहीं हो सकता. उसके लिए तो सिर्फ अपने कर्मों की शुद्धता तथा आध्यात्मिकता ही एकमात्र उपाय है. 
हमारे इस शरीर की स्थिति के लिए जन्मकुंडली का लग्न(देह) भाव, पंचमेश और चतुर्थेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. लग्न भाव देह को दर्शाता है,चतुर्थेश मन की स्थिति और पंचमेश आत्मा को. जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में लग्न(देह),चतुर्थेश(मन) और पंचमेश(आत्मा) इन तीनों की स्थिति अच्छी होती है,वह सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है.
आप सभी जानते हें चन्द्रमा मन का कारक ग्रह है, जो “चन्द्रमा मनसा जातो” इस वाक्य से सुप्रमाणित है। चन्द्रमा अपनी कलाओं के माध्यम से ही हमारे मन को संचालित करता है। पूर्णिमा को जब पूर्ण चन्द्रोदय होता है, उस समय समुद्र में ज्वार भाटा उत्पन होता है और मनुष्यों में मानसिक रोगों का आवेग भी सर्वाधिक रूप में इसी तिथि को दिखाई देता है। इसीलिए हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों द्वारा पूर्णिमा के दिन व्रत, तीर्थ-स्नान, पूजन एवं जप इत्यादि का विधान बनाया गया है, जिससे कि मनुष्य का मानसिक संतुलन बना रहता है।
सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रहों के पंचतत्वात्मक प्रतिनिधित्व को इस प्रकार निरूपित किया गया है।
वेसे ही मंगल अग्नि तत्व का, बुध पृ्थ्वी तत्व का, बृ्हस्पति आकाश तत्व का, शुक्र जल तत्व का और शनि वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य के शरीर में इन तत्वों की कमी अथवा वृ्द्धि का कारण तात्कालिक ग्रह स्थितियों के आधार पर जानकर ही कोई भी विद्वान ज्योतिषी भविष्य में होने वाले किसी रोग-व्याधी का बहुत ही आसानी से पता लगा लेता है। क्यों कि इन पंचतत्वों का असंतुलन एवं विषमता ही शारीरिक रोग-व्याधी को जन्म देता है।   
इसलिए प्राचीनकाल में ज्योतिष के विद्यार्थी को आयुर्वेद की शिक्षा भी साथ ही प्रदान की जाती थी तथा चिकित्सक ,वैधक भी ज्योतिष विद्या में पारंगत हुआ करते थे । जिससे कि रोगी के शरीर में जिस भी तत्व की कमी या अधिकता है, उसे जानकर शरीर में विद्यमान अन्य तत्वों के साथ उसका उचित संतुलन रखा जा सके।
जैसे कि मान लीजिए किसी व्यक्ति पर सूर्य ग्रह का विशेष प्रभाव है तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की प्रधानता होगी । अब यदि वो व्यक्ति अधिक मात्रा में जलीय पदार्थो का सेवन करे तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की अधिकता का कोई दुष्प्रभाव नहीं हो पाएगा अर्थात जल तत्व को बढाकर अग्नि तत्व की विषमता को कम किया जा सकता है । ठीक इसी प्रकार से शरीर में अन्य तत्वों का भी सही सन्तुलन बनाए रखा जा सकता है।

रोगों से बचाव और मुक्ति का रामबाण हल:– 

वर्तमान युग को यदि “लोहयुग” कहा जाए तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी. अन्य सभी धातुओं को कहीं पीछे छोड आज लोहा हमारे समूचे जीवन में कितना अधिक समा चुका है. जीवन के हर क्षेत्र में बस इसी धातु की घुसपैठ दिखाई पडती है ——दरअसल बीमारीयों/रोगों का मूल कारण भी यही है. हम भोजन इत्यादि के लिए जिन पात्रों (बर्तनों) का प्रयोग करते हैं, उस धातु का कितना अधिक प्रभाव हमारे शरीर पर पडता है, ये शायद हम लोग नहीं जानते. ज्योतिष की बात की जाए तो इसमें लोहा/स्टील शनि ग्रह की धातु मानी जाती है. जिसका प्रभाव मुख्य रूप से मानव शरीर के वात-संस्थान पर पडता है. लोहे का अधिक मात्रा में किया गया उपयोग शरीरगत अग्नितत्व(सूर्य, मंगल प्रभाव) एवं आकाशतत्व (बृ्हस्पति प्रभाव) को दूषित कर मानवी शरीर को रोगों का विश्राम गृ्ह बना देता है.
अग्नितत्व दूषित होने से रक्त और पितजन्य विकार, मसलन रक्त विकार, शिरोरोग, ह्रदयघात, पीडा, चक्कर, नेत्रकष्ट, स्मृ्तिनाश, मृ्गी, विक्षिप्तता, भ्रम, आन्त्रशोथ, मंदाग्नि, अतिसार और अजीर्ण तथा आकाशतत्व के दूषित होने से शोथ, गुल्म, ब्रण, चर्मदोष आदि इन प्रक्रियात्मक  रोगों में से किसी न किसी एक अथवा एक से अधिक व्याधि से आज के युग में अधिकतर व्यक्ति पीडित है. 
आईये जानते हैं कि आप अपनी जन्मकुंडली के अनुसार कैसे निज शरीर का विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव और उनसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं:— 
1. मेष, सिँह, वृ्श्चिक लग्न के व्यक्ति यदि भोजन के लिए ताँबे के बर्तनों का प्रयोग करें तो जहाँ एक ओर ये उनके पित्त को निर्दोष रख, गुर्दे का रोग, ह्रदय दौर्बल्य, मेद रोग, रक्त व्याधि, यक्ष्मा, अर्श-भगंदर इत्यादि किसी प्रकार के पुराने चले आ रहे रोग के लिए रामबाण औषधी का काम करेगा, वहीं इसके नियमित प्रयोग से नया रोग भी उनके नजदीक फटकने से पहले सौ बार सोचेगा.
2. मिथुन,कन्या, धनु और मीन लग्न के व्यक्तियों द्वारा लोह (स्टील) पात्रों का अधिक मात्रा में प्रयोग विस्मृ्ति (यादद्दाश्त में कमी), अनिन्द्रा, गठिया, जोडों का दर्द, मानसिक तनाव, अमलता, आन्त्रदोष इत्यादि किसी रोग का कारण बनता है. इनके लिए भोजन में काँसे के बर्तनों को प्रयुक्त करना शारीरिक रूप से सदैव हितकारी रहेगा.
.. वृ्ष, कर्क, तुला लग्न के व्यक्तियों को सदैव भोजन के लिए चाँदी और पीतल (मिश्र धातु) दोनों प्रकार के बर्तनों का संयुक्त रूप से प्रयोग करना चाहिए. लोह पात्रों का अधिकाधिक उपयोग इनके लिए नेत्र पीडा, स्वाद ग्रन्थियाँ, कफजन्य रोग, असन्तुलित रक्त प्रवाह, कर्णनाद, शिरोव्यथा, श्वासरोग इत्यादि किसी रोग-व्याधी का कारण बनता है.
4. मकर लग्न के व्यक्ति के लिए अन्य किसी भी धातु के सहित प्रतिदिन लकडी के पात्र का प्रयोग करना भी इन्हे वायु दोष, चर्म रोग, विचार शक्ति की उर्वरता में कमी, एवं तिल्ली के विकारों से मुक्ति में सहायक और भविष्य में उनसे बचाव हेतु रामबाण इलाज है.
5. कुम्भ लग्न के व्यक्ति के लिए तो लोहा (स्टील) ही सर्वोतम धातु है. इसके साथ ही इस लग्न के व्यक्तियों को यदाकदा मिट्टी के पात्र में “केवडा मिश्रित जल” का भी सेवन अवश्य करते रहना चाहिए.
आइये जाने की किस राशी पर के और क्यों होता हें प्रभाव..???
1. मेष राशि :- इस राशि का स्वामी मंगल है। यह सिर या मस्तिष्क की कारक है और इसके कारक ग्रह मंगल और गुरू हैं। मकर राशि में 28 अंश पर मंगल उच्चा के होते हैं तथा कर्क राशि में नीच के होते हैं। मंगल वीर, योद्धा, खूनी स्वभाव और लाल रंग के हैं। अग्नि तत्व व पुरूष प्रधान तथा क्षत्रिय गुणों से युक्त है। यह राशि मस्तिष्क, मेरूदण्ड तथा शरीर की आंतरिक तंत्रिकाओं पर विपरीत प्रभाव डालती है। लग्न में यह राशि स्थित हो तथा मंगल नीच के हो या बुरे ग्रहों की इस पर दृष्टि हो तो ऎसा जातक उच्चा रक्तचाप का रोगी होगा। आजीवन छोटी-मोटी चोटों का सामना करता रहेगा। सीने में दर्द की शिकायत रहती है और ऎसे जातक के मन में हमेशा इस बात की शंका रहती है कि मुझे कोई जहरीला जानवर ना काट ले। परिणाम यह होता है कि ऎसे जातक का आत्म विश्वास कमजोर हो जाता है और उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है जो अनावश्यक रूप से विविध प्रकार की मानसिक बीमारियों का कारण होती है।
2. वृषभ राशि :- इस राशि का स्वामी शुक्र है। यह मुख की कारक राशि है व लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध और शनि होते हैं। शुक्र 27 अंश पर मीन में उच्चा के तथा कन्या राशि में नीच के होते हैं(परम उच्चांश व परम नीचांश)। शुक्र ग्रह कलात्मक गुणों से भरपूर, रसिक व आशिक मिजाज, रंग सफेद तथा भूमि व वायु से युक्त है। वृषभ राशि लग्न में स्थित हो, शुक्र या कारक ग्रह नीच के हो तो जातक हमेशा नियमों के खिलाफ चलने वाला होता है। ऎसे जातक को मुख संबंधी बीमारी छाले, तुतलाकर बोलना आदि की शिकायत रहती है तथा जातक की संतान को आजीवन बुरे स्वास्थ्य का सामना करना प़डता है।
3. मिथुन राशि :- मिथुन राशि का स्वामी बुध है। यह वक्ष, छाती, भुजाएं व श्वास नली की कारक है। लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध व चन्द्रमा होते हैं। बुध के परम उच्चांश व परम नीचांश 15 होते हैं जो कन्या राशि में उच्चा के तथा मीन राशि में नीच के होते हैं। बुध ग्रह को नपुंसक, स्त्री तत्व युक्त, राजकुमार आदि की संज्ञा दी गई है। रंग हरा व इसमें पृथ्वी व वायु तत्व मौजूद है। इसकी वणिक वृत्ति रहती है। यदि बुध कुण्डली में नीच का हो या अन्य क्रूर ग्रहों से पीड़ित  हो तो जातक फेफ़डों से संबंधित रोग जैसे टी.बी., श्वास नली में खराबी, वायु प्रकोप (गैस व अपच), जी घबराना, हाथ व माँस पेशियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता  है।
4. कर्क राशि :-कर्क राशि का स्वामी चन्द्रमा है। यह राशि ह्वदय की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह चन्द्रमा और मंगल होते हैं। 3 अंश पर वृषभ राशि में चन्द्रमा उच्च् के तथा वृश्चिक राशि में परम नीच के माने जाते हैं। चन्द्रमा सौम्य ग्रह है। जल तत्व, सफेद रंग, स्त्री प्रधान तथा ब्राह्मण  व वैश्य के गुण इनमें मौजूद हैं। यदि कुण्डली के लग्न में र्क राशि हो व चन्द्रमा नीच के या पीड़ित हो तो जातक की त्वचा व पाचन संस्थान पर विपरीत प्रभाव रहता है एवं जातक में आत्म विश्वास की कमी रहती है। मानसिक अवसाद, कुण्ठा व जातक कमजोर दिल का होता है। ऎसे जातक की संतान भी नीच विचारों की होती है।
5. सिंह राशि :-सिंह राशि का स्वामी सूर्य है जो नक्षत्र-मण्डल का स्वामी है। यह राशि गर्भ व पेट की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य और मंगल होते हैं। 1. अंश पर मेष राशि में ये परम उच्च के तथा तुला राशि में परम नीच के होते हैं। सूर्य उग्र स्वभाव के, अग्नि तत्व तथा इनका रंग हल्का लाल व पीला है। यदि कुण्डली के लग्न में सिंह राशि है तथा यह या सूर्य नीच के हो या अन्यथा किसी प्रकार पीड़ित हो तो शरीर में रक्त संचार एवं जीवनी शक्ति प्रभावित होती है। जातक को ह्वदयाघात, हडि्डयों की बीमारी व नेत्र रोगों से ग्रसित हो सकता है। ऎसा जातक अपने लक्ष्यों से भटक जाता है तथा नीच कर्मरत रहता है।
6. कन्या राशि :- न्या राशि के स्वामी बुध है तथा यह पेट व कमर के कारक हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह बुध तथा शुक्र होते हैं। नीच का या अन्यथा बुध पीड़ित होने पर पेट, पाचन क्रियाएं, यकृत संबंधित रोग व शुक्र के प्रभाव या संयोग के कारण गुप्त रोगों का व किडनी, गुदा से संबंधित रोग जातक को प्रदान करता है।
7. तुला राशि :-तुला राशि के स्वामी शुक्र हैं तथा यह राशि मृत्राशय की कारक है। लग्न में यह राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, शनि व बुध होते हैं एवं स्वामी के किसी भी प्रकार से पीड़ित होने पर या नीच का होने पर यह जातक को जननांग व मूत्राशय संबंधित रोगों से पीड़ित  रखता है। महिलाओं के मासिक धर्म व गर्भ धारण संबंधी क्रिया भी इसी के कारण प्रभावित होती है।
8. वृश्चिक राशि :-वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल हैं। यह राशि गुप्तांगों (लिंग व गुदा) की कारक है। लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह मंगल, गुरू व चंद्रमा होते हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर व राशि स्वामी के पीड़ित होने पर या नीच में स्थित होने पर या मंगल बद होने पर गुदा, लिंग, जननांग, यकृत, मस्तिष्क संबंधी व आंतों की बीमारियों से जातक को ग्रसित करती हैं।
9. धनु राशि :-धनु राशि के स्वामी देवगुरू बृहस्पति हैं। यह राशि जांघों व नितम्ब की कारक है। गुरू पुरूष प्रधान, शांत व मौन प्रकृति के, रंग पीला तथा इनमें जल व अग्नि दोनों तत्व मौजूद है। लग्न में स्थित होने पर इस राशि के कारक ग्रह गुरू व चन्द्रमा होते हैं। 5 अंश पर कर्क में परमोच्चा व मकर राशि में परम नीच के होते हैं। नीचस्थ व पीड़ित गुरू जातक को लीवर, ह्वदय, आंत, जंघा, कूल्हे व बवासीर रोगों से ग्रसित रखते हैं।
10. मकर राशि :-मकर राशि के स्वामी शनि है। यह राशि घुटनों की कारक है। शनि क्रूर ग्रह है। इसका रंग काला तथा इसमें वायु व पृथ्वी तत्व मौजूद है। शनि 20 अंश पर तुला राशि में परमोच्चा व मेष राशि में परम नीच के होते हैं। लग्न में मकर राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शनि, शुक्र व बुध होते हैं। शनि नीचस्थ या पीड़ित होने पर जातक को घुटनों, जांघ, कफ व पाचन तंत्र संबंधी बीमारियों से ग्रसित रखता है। इसके अलावा पुरानी बीमारी यदि कोई है तो उस पर भी इसी राशि का प्रभाव रहता है।
11. कुम्भ राशि :-कुम्भ राशि के स्वामी भी शनि है। यह राशि पिण्डलियों की कारक है। कुम्भ राशि लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह गुरू, शुक्र व शनि होते हैं। शनि के पीड़ित या नीचस्थ होने पर व इस राशि के पीड़ित होने पर जातक पिण्डलियों, उच्च रक्तचाप, हर्निया व कई प्रकार की अन्य बीमारियों से ग्रसित रहता है क्योंकि ऎसा जातक खराब आदतों वाला व किसी भी प्रकार के नशे का आदि होता है जिसके परिणामस्वरूप वह कई प्रकार की व्याधियां पाल लेता है।
12. मीन :- मीन राशि का स्वामी देवगुरू बृहस्पति होते हैं। यह राशि पैर के पंजों की कारक है। लग्न में मीन राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य, मंगल व गुरू होते हैं। राशि स्वामी के पीç़डत या नीचस्थ होने पर जातक लीवर, पंजों, तंत्रिका से संबंधी बीमारी व घुटनों संबंधी परेशानी जातक को रहती है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कुण्डली में रोगों का अध्ययन करते समय उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए व ग्रहों की युति, प्रकृति, दृष्टि, उनका परमोच्चा या परम नीच की स्थिति का गहन अध्ययन कर ही किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए।

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