आइये इतिहास के पन्‍नों से जाने की क्या हें 


पंचांग एवं कैसे आया पंचांग…????

पंचांग एक भारतीय आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक कैलेन्डर (तिथिपत्री) है। हिन्दु धर्म में पंचांग युगों से वैदिक ज्योतिष का प्रचलन है जिसके द्वारा हिन्दु पूर्वज किसी भी दिन के शुभ तथा अशुभ कालों की गणना करते थे और यही पद्धति आज भी भारत के अतिरिक्त विश्व के कई हिस्सों में अपनाई जाती है। 


ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-. ) के अनुसार पंचांग का अर्थ है पंच+अंग अर्थात पांच अंग। पंचांग के द्वारा चन्द्र मास की गणना की जाती है जो कि 7 दिनों के 4 सप्ताहों में विभाजित है और आगे चलकर इसी से हमें ग्रहों एवं नक्षत्रों के गुप्त मार्गों की जानकारी मिलती है। चन्द्र मास पर आधारित यही गणना ज्योतिषियों को आपके भविष्य के विषय में सही गणना करने में सहायता करती है। 
पंचांग के पांच प्रकार के पहलु हैं: दिन (वार) अर्थात सूर्य दिवस, तिथि अर्थात चन्द्र दिवस, नक्षत्र अर्थात तारा-मन्डल या तारों का समूह, योग एवं कर्ण। पंचांग की गणना आपको किसी भी दिन के शुभ एवं अशुभ काल अथवा मुहूर्त की जानकारी देती है। पंचांग के द्वारा आप जान सकते हैं कि आपके लिए यात्रा, प्रेम, समारोह आयोजन, साक्षात्कार, निवेश, उदघाटन, नींव रखना आदि कार्य करना किस समय अतिशुभ होंगे। इस प्रकार के शुभ मुहूर्तों के समय की गणना के लिए सप्ताह के वार, तिथि, नक्षत्र, दिन के योगम्, दिन के कर्ण आदि के समाप्ति के समय को ध्यान में रखा जाता है। 
क्योंकि पंचांग हिन्दुओं को काल अथवा समय के धार्मिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के आधार पर कार्य आरम्भ करने की जानकारी देता है इसीलिए हिन्दुओं द्वारा पंचांग को ईश्वर तथा धर्म की ओर ले जाने वाला एक वैज्ञानिक मार्गदर्शक भी माना जाता है। 


ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-.90.4.90067 ) के अनुसार हमारा राजकीय कैलेंडर ईसवी सन् से चलता है इसलिये नयी पीढ़ी तथा बड़े शहरों पले बढ़े लोगों में बहुत कम लोगों यह याद रहता है कि भारतीय संस्कृति और और धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला विक्रम संवत् देश के प्रत्येक समाज में परंपरागत ढंग मनाया जाता है। देश पर अंग्रेजों ने बहुत समय तक राज्य किया फिर उनका बाह्य रूप इतना गोरा था कि भारतीय समुदाय उस पर मोहित हो गया और शनैः शनैः उनकी संस्कृति, परिधान, खानपान तथा रहन सहन अपना लिया भले ही वह अपने देश के अनुकूल नहीं था।
अंग्रेज चले गये पर उनके मानसपुत्रों की कमी नहीं है। सच तो यह है कि अंग्रेज वह कौम है जिसको बिना मांगे ही दत्तक पुत्र मिल जाते हैं जो भारतीय माता पिता स्वयं उनको सौंपते हैं। सच तो यह है कि विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाता है और कम से कम इस बात की अनुभूति तो होती है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सारे समुदाय इसे एक साथ बिना प्रचार और नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं।
दुनिया का लगभग प्रत्येक कैलेण्डर सर्दी के बाद बसंत ऋतू से ही प्रारम्भ होता है, यहाँ तक की ईस्वी सन बाला कैलेण्डर (जो आजकल प्रचलन में है) वो भी मार्च से प्रारम्भ होना था। इस कलेंडर को बनाने में कोई नयी खगोलीये गणना करने के बजाये सीधे से भारतीय कैलेण्डर (विक्रम संवत) में से ही उठा लिया गया था। आइये जाने क्या है इस कैलेण्डर का इतिहास:
दुनिया में सबसे पहले तारों, ग्रहों, नक्षत्रो आदि को समझने का सफल प्रयास भारत में ही हुआ था, तारों, ग्रहों, नक्षत्रो, चाँद, सूरज……आदि की गति को समझने के बाद भारत के महान खगोल शास्त्रीयो ने भारतीय कलेंडर (विक्रम संवत) तैयार किया, इसके महत्व को उस समय सारी दुनिया ने समझा। लेकिन यह इतना अधिक व्यापक था कि – आम आदमी इसे आसानी से नहीं समझ पाता था, खासकर पश्चिम जगत के अल्पज्ञानी तो बिल्कुल भी नहीं।
ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार किसी भी विशेष दिन, त्यौहार आदि के बारे में जानकारी लेने के लिए विद्वान् (पंडित) के पास जाना पड़ता था। अलग अलग देशों के सम्राट और खगोलशास्त्री भी अपने अपने हिसाब से कैलेण्डर बनाने का प्रयास करते रहे। इसके प्रचलन में आने के 57 वर्ष के बाद सम्राट आगस्तीन के समय में पश्चिमी कैलेण्डर (ईस्वी सन) विकसित हुआ। लेकिन उसमें कुछ भी नया खोजने के बजाए, भारतीय कैलेंडर को लेकर सीधा और आसान बनाने का प्रयास किया था। पृथ्वी द्वारा 365/366 में होने वाली सूर्य की परिक्रमा को वर्ष और इस अवधि में चंद्रमा द्वारा पृथ्वी के लगभग .2 चक्कर को आधार मान कर कैलेण्डर तैयार किया और क्रम संख्या के आधार पर उनके नाम रख दिए गए।
पहला महीना मार्च (एकम्बर) से नया साल प्रारम्भ होना था।
1. – एकाम्बर ( 31 ) 2. – दुयीआम्बर (30) 3. – तिरियाम्बर (31) 4. – चौथाम्बर (30) 5.- पंचाम्बर (31) 6.- षष्ठम्बर (30) 7. – सेप्तम्बर (31) 8.- ओक्टाम्बर (30) 9.- नबम्बर (31) 10.- दिसंबर ( 30 ) 11.- ग्याराम्बर (31) 12.- बारम्बर (30 / 29 ), निर्धारित किया गया।
सेप्तम्बर में सप्त अर्थात सात, अक्तूबर में ओक्ट अर्थात आठ, नबम्बर में नव अर्थात नौ, दिसंबर में दस का उच्चारण महज इत्तेफाक नहीं है लेकिन फिर सम्राट आगस्तीन ने अपने जन्म माह का नाम अपने नाम पर आगस्त (षष्ठम्बर को बदलकर) और भूतपूर्व महान सम्राट जुलियस के नाम पर – जुलाई (पंचाम्बर) रख दिया।
इसी तरह कुछ अन्य महीनों के नाम भी बदल दिए गए। फिर वर्ष की शरुआत ईसा मसीह के जन्म के 6 दिन बाद (जन्म छठी) से प्रारम्भ माना गया। नाम भी बदल इस प्रकार कर दिए गए थे।
जनवरी (31), फरबरी (30/29), मार्च (31), अप्रैल (30), मई (31), जून (30), जुलाई (31), अगस्त (30), सितम्बर (31), अक्टूबर (30), नवम्बर (31), दिसंबर ( 30) माना गया।
फिर अचानक सम्राट आगस्तीन को ये लगा कि – उसके नाम वाला महीना आगस्त छोटा (30 दिन) का हो गया है तो उसने जिद पकड़ ली कि – उसके नाम वाला महीना 31 दिन का होना चाहिए।
राजहठ को देखते हुए खगोल शास्त्रीयों ने जुलाई के बाद अगस्त को भी 31 दिन का कर दिया और उसके बाद वाले सेप्तम्बर (30), अक्तूबर (31), नबम्बर (30), दिसंबर ( 31) का कर दिया। एक दिन को एडजस्ट करने के लिए पहले से ही छोटे महीने फरवरी को और छोटा करके (28/29) कर दिया गया।
आम तौर पर लोग नकली कैलेण्डर के अनुसार नए साल पर, फ़ालतू का हंगामा करते हैं। जबकि हमें इस पूर्णरूप से वैज्ञानिक और भारतीय कलेंडर (विक्रम संवत) के अनुसार आने वाले नव वर्ष प्रतिपदा पर, समाज उपयोगी सेवाकार्य करते हुए नवबर्ष का स्वागत करना चाहिये।
आइये जाने उत्तर भारत में पंचांग निर्माण के स्थल— 

पंचांग का निर्माण वैदिक काल से होता आ रहा है। पहले कभी यह एकांग तिथि मात्र था। बाद में नक्षत्र एवं वार के सम्मिलित हो जाने पर यह द्व्यंग एवं त्र्यंग बना। कालांतर में योग एवं करण के समाविष्ट होने पर इसे पंचांग कहा जाने लगा। भारत में कई स्थानों पर पंचांग का निर्माण होता है। पंचांग निर्माण की यह परंपरा सुदीर्घ है। दृक्सिद्ध शुद्ध पंचांग के निर्माणार्थ उत्तर भारत में सवाई राजा जयसिंह ने उज्जैन, काशी, दिल्ली, जयपुर एवं मथुरा में भव्य वेधशालाओं का निर्माण करवाया। विभिन्न स्थलों पर स्थित वेध् ाशालाओं से प्राप्त ग्रह और नक्षत्रों की राशिचक्र में अंशात्मक स्थिति ज्ञात कर शुद्ध गणित से पांच अंगों तिथि, वार, नक्षत्र, योग एवं करण का विश्लेषण किया जाता था। 

ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार पंचांग का निर्माण सिद्धांत ग्रन्थों में व्यक्त गणित के आधार पर होता है, इसलिए इसका निर्माण किसी भी स्थल पर किया जा सकता है। गणित की सहायता से सापेक्षतः पृथ्वी के किसी भी स्थल के दिक्, देश एवं काल का आनयन किया जा सकता है। सिद्धांत ग्रंथों के आधार पर निर्मित होने वाले पंचांगों का गणित केवल किसी स्थान विशेष के लिए ही नहीं होता, अपितु इन ग्रंथों में व्यक्त गणित के आधार पर भारत के किसी समय की सूर्य, चंद्र इत्यादि ग्रहों की गति-स्थिति तथा उदयास्त, ग्रहण इत्यादि ज्योतिष संबंधी तथ्यों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अतः स्पष्ट है कि पंचांग का निर्माण किसी भी स्थल पर किया जा सकता है। उत्तरभारत के पंचांगों में पंचांग परिवर्तन की गणितीय विधि दी गई होती है जिसके द्वारा एक स्थल पर निर्मित पंचांग को अन्य स्थल के पंचांग में परिवर्तित किया जा सकता है। 

ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार पंचांग के सार्वभौमिक महत्व को ध्यान में रखते हुए प्रयास किया जाता है कि इसका निर्माण ऐसे स्थल (अक्षांश-रेखांश) पर किया जाए जहां की जनसंखया अध्ि ाक हो, ताकि इसका लाभ अधिक से अधिक लोगों को मिल सके। यही कारण है कि उत्तर भारत में दिल्ली एवं काशी से अनेक पंचांग निकलते हैं। यद्यपि भारत के किसी भी स्थल पर बने पंचांग को देशांतर, चरांतर इत्यादि संस्कारों द्वारा स्थानीय पंचांग में परिवर्तित कर सकते हैं, किंतु स्थानीय पंचांग का उपयोग करना अधिक उचित होता है। पंचांग के निर्माण में स्थल का विशेष महत्व है। निर्माण स्थल के अक्षांश और रेखांश अथवा पलभा के आधार ही गणित की सहायता से तिथि, वार (वार प्रवृत्ति), नक्षत्र, योग एवं करण के घटी-पलात्मक मानों को पंचांग के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। भिन्न-भिन्न स्थलों पर निर्मित पंचांगों में तिथ्यादि के घटी-पलात्मक मान भिन्न-भिन्न होते हैं, जो स्थानीय सूर्योदय के आधार पर ज्ञात किए जाते हैं। आज से कुछ वर्ष पूर्व ज्योतिर्विद स्वनिर्मित स्थानीय पंचांग प्रयोग करते थे। कालांतर में उत्तर भारत में पंचांग का निर्माण अध्ि ाकांशतः हर प्रांत एवं मंडल में होने लगा। 

वर्तमान में उत्तर भारत में पंचांग निर्माण के प्रमुख स्थल इस प्रकार हैं। (1) काशी(उ.प्र.) (2) दिल्ली (3) उज्जैन (म.प्र.) (4) कलकत्ता (प.बं.) (5) जोधपुर (राजस्थान) (6) चंडीगढ़ (हरियाणा) (7) जालंधर (पंजाब) (8) दरभंगा (बिहार) (9) नवलगढ ़(राजस्थान) (10) मथुरा (उ.प्र.) (11) जबलपुर (म.प्र.) (12) रामगढ़ (राजस्थान) (13) अयोध्या (उ.प्र.) (14) दतिया (म.प्र.) (15) गढ़वाल (उत्तरांचल) काशी (वाराणसी) : उत्तर भारत में काशी धार्मिक दृष्टि से ही नहीं वरन् ज्योतिषीय अध्ययन की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण स्थल है। काशी को शिव का वास स्थान कहा जाता है। नारद पुराण के भाग 2 के अध्याय 6 के श्लोक 34-36 में महर्षि नारद ने काशी के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा है कि सभी देवों का एक मात्र वास स्थान वाराणसी पुरी संपूर्ण तीर्थों में उत्तम तीर्थ है। जो इस परम तीर्थ वाराणसी (काशी) क्षेत्र का स्मरण करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर शिवलोक को चले जाते हैं।1 अतः स्पष्ट है कि काशी का धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व है। भारत के मानचित्र पर काशी ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 830 : 0′ तथा उत्तरी अक्षांश 250 : 19′ पर स्थित है। 

ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार गंगा के किनारे स्थित होने के कारण काशी में जप, दान, व्रत एवं स्नान आदि धार्मिक कृत्यों का विशेष महत्व है। धार्मिक कृत्यों के संपादन एवं शुभाशुभ समयानुसार संपन्न करने की विधि का ज्ञान पंचांग के माध्यम से होता है। अतः पंचांग निर्माण की दृष्टि से भी काशी एक अति महत्वपूर्ण स्थल है। ज्योतिष का अध्ययन यहां प्राचीनकाल से होता आ रहा है। काशी से निकलने वाले पंचांगों में प्रमुख हैं – विश्व पंचांग, श्री हृषीकेश (काशी विश्वनाथ) पंचांग, बापूदेव शास्त्री प्रवर्तित दृक्सिद्ध पंचांग, ज्ञानमंडल सौर पंचांग, श्री महावीर पंचांग, श्री गणेश आपा पंचांग इत्यादि। इन पंचांगों का निर्माण अलग-अलग सिद्धांत अथवा करण ग्रन्थों के आधार पर निरयन पद्धति से होता है। 

दिल्ली दिल्ली न केवल भारत की राजधानी है, बल्कि उत्तर भारत में पंचांग निर्माण का महत्वपूर्ण स्थल है। भारत के मानचित्र पर दिल्ली नगर ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 770 : 12′ और उत्तरी अक्षांश 280 : 38′ पर स्थित है। दिल्ली की जनसंखया एक करोड़ से भी अधिक है, फलतः यहां ज्योतिष की आवश्यकता की दृष्टि से पंचांगों की बिक्री भी अधिक होती है। दिल्ली का प्रभाव संपूर्ण भारत पर दिखाई देता है इसीलिए यहां के घटनाक्रम का अध्ययन ज्योतिष की दृष्टि से भी किया जाता है। दिल्ली से निकलने वाले पंचांगों मे प्रमुख हैं – विश्वविजय पंचांग, श्री आर्यभट्ट पंचांग, विद्यापीठ पंचांग एवं पं. जैनी जीयालाल शिखर चंद्र जी चौधरी कृत असली पंचांग इत्यादि। इन सभी पंचांगों का निर्माण चित्रापक्षीय एवं निरयन पद्धति से किया जाता है। विद्यापीठ पंचांग का निर्माण लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ (मानित वि.वि.) के तत्वावधान में होता है। इसके प्रधान संपादक कुलपति महोदय होते हैं। इस पंचांग का निर्माण विद्यापीठ की वेधशाला की सहायता से होता है। यह एक दृक्सिद्ध शुद्ध पंचांग है। दिल्ली स्थित धर्मसन प्रकाशन से प्रकाशित श्री आर्यभट्ट पंचांग के प्रधान संपादक पंलक्ष् मीनारायण शर्मा हैं। यह पंचांग मुखयतः आर्य सिद्धांत पर आधारित है। विश्वविजय पंचांग के आद्य संपादक स्व. श्री हरदेव शर्मा (त्रिवेदी) एवं संपादक श्री सुधाकर शर्मा त्रिवेदी हैं। वर्तमान में विश्वविजय पंचांग के मुद्रक एवं वितरक रुचिका पब्लिकेशन हैं। उक्त सभी पंचांगों का निर्माण दिल्ली के अक्षांश-रेखांश अथवा पलभा के आधार पर नवीन दृक् गणित की सहायता से हो रहा है। इस तरह स्पष्ट है कि उत्तर भारत में पंचांग निर्माण की दृष्टि से दिल्ली एक अति महत्वपूर्ण स्थल है। 

उज्जैन उज्जयिनी या अवंतिका गुप्तकाल में खगोल-ज्योतिष का प्रमुख केन्द्र एवं विखयात खगोलज्ञ वराहमिहिर की कर्मभूमि रही थी। ज्योतिषीय अध्ययन की दृष्टि से उज्जैन का विशेष महत्व है। भारत के मानचित्र पर उज्जैन ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 750 43′ और उत्तरी अक्षांश 230 1′ पर स्थित है। प्राचीन आचार्यों ने उज्जैन को याम्योत्तर (दक्षिणोत्तर) रेखा पर दर्शाया है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार लंका और सुमेरु पर्वत के बीच पृथ्वी पर खींची गई रेखा पर स्थित नगर रेखापुर कहलाते हैं। रोहीतक, अवंती (उज्जयिनी) एवं कुरुक्षेत्र इत्यादि एैसे ही नगर हैं। याम्योत्तर रेखा पर स्थित होने के कारण सिद्धांत ग्रन्थों में उज्जयिनी के सूर्योदय कालीन मध्यम ग्रहों को दर्शाया गया है। सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार जो रेखा लंका, उज्जयिनी, कुरुक्षेत्र आदि को स्पर्श करती हुई सुमेरु पर्वत तक गई है, उसे विद्वानों ने भू-मध्य रेखा कहा है। भारतीय ज्योतिष में 0 देशांतर अर्थात लंका के आधार पर ग्रह गणना की गई है तथा देशांतर आदि स्थानीय संस्कार उज्जयिनी से किए गए हैं। इसकी भौगोलिक स्थिति को ज्योतिष के उपयुक्त पाकर सवाई राजा जयसिंह ने यहां एक वेधशाला का निर्माण कराया। आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जब सूर्य की परमक्रांति 240 तथा उज्जैन के अक्षांश तुल्य थे5 तब सूर्य उज्जैन के ख-मध्य में आकर ही अपना परमोत्तर गमन पूर्ण करके दक्षिणाभिमुख यात्रा करता था। वार-प्रवृत्ति का ज्ञान भी उज्जैनी से किया जाता है। इस तरह, उत्तर भारत में पंचांग निर्माण की दृष्टि से उज्जैन एक महत्वपूर्ण स्थल है। महाकालेश्वर की नगरी से विखयात उज्जैन से निकलने वाले पंचांगों में दृश्य ग्रह स्थिति पंचांग एवं विक्रम विजय पंचांग प्रमुख हैं। एस्ट्रॉनॉमिकल एफेमरीज का निर्माण जीवाजी शासकीय वेधशाला, उज्जैन से प्राप्त खगोलीय दृश्य ग्रह स्थिति के आधार पर होता है। इस एफेमरीज में भारतीय समयानुसार दोपहर 12 बजे के सायन ग्रहस्पष्ट दर्शाए गए हैं। एस्ट्रॉनॉमिकल एफेमरीज में व्यक्त स्पष्ट ग्रहों के भोग्यांशों में चालन एवं अयनांश हीन करने पर कलकत्ता की लहरी एफेमरीज में व्यक्त स्पष्टग्रहों के भोग्यांशों के तुल्य प्राप्त होते हैं। उज्जैन के संदीपन व्यास प्रकाशन से प्रकाशित विक्रम विजय पंचांग के प्रधान संपादक डॉ. मदन व्यास हैं। यह एक शास्त्रसम्मत् पंचांग है। उज्जैन के अक्षांशादि पर ही श्री मातृभूमि पंचांग का निर्माण केतकी चित्रापक्षीय दृश्य गणित के अनुसार होता है। डॉ. विष्णु कुमार शर्मा इसके पंचांगकार हैं। 

ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार उक्त पंचांगों के अतिरिक्त कुछ अन्य पंचांग भी उज्जैन से प्रकाशित होते हैं जिनमें पं. भगवती प्रसाद पांडेय द्वारा संपादित श्री वि क्रमादित्य पंचांग और पं. आनंद द्रांकर व्यास द्वारा प्रकाशित नारायण विजय पंचांग आदि प्रमुख हैं। जबलपुर जबलपुर भारत के मानचित्र पर ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 790 57′ तथा उत्तरी अक्षांश 230 10′ पर स्थित है। यहां से निकलने वाले पंचांगों में भुवन विजय पंचांग एवं लोक विजय पंचांग प्रमुख हैं। 

कलकत्ता कलकत्ता भारत के पूर्वोत्तर भाग में स्थित है। यह भारत की सर्वाधिक जनसंखया वाले नगरों में से एक है। यह ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 880 23′ तथा उत्तरी अक्षांश 230 35′ पर स्थित है। यहां स्थित पोजिशनल एस्ट्रॉनॉमी सेंटर से दि इंडियन एस्ट्रॉनॉमिकल एफेमरीज निकलती है, जिसका प्रकाशन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार का प्रकाशन विभाग करता है। इसके अतिरिक्त लहरी इंडियन एफेमरीज का निर्माण भी कलकत्ता के अक्षांश-रेखांश पर होता है। लहरी इंडियन एफेमेरीज में भा.मा.स. में प्रातः 5 बजकर 30 मिनट के निरयन स्पष्ट ग्रहों को दर्शाया जाता है। इस एफेमेरीज की शुरुआत खगोलज्ञ श्री निर्मल चंद्र लहरी ने सन् 1948 में की। श्री निर्मल चंद्र लहरी के अनुसार शक 207 (285 ई.) में अयनांश शून्य मानकर निरयन ग्रह गणना निर्देशित है। कलकत्ता से निकलने वाले पंचांगों में ये दोनों एफेमेरीज प्रमुख हैं। इस तरह, पंचांग निर्माण की दृष्टि से कलकत्ता एक महत्वपूर्ण स्थल है। 

जोधपुर जोधपुर राजस्थान प्रांत का प्रमुख शहर है, जो ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 730 2′ तथा उत्तरी अक्षांश 260 18′ पर स्थित है। निर्णयसागर, चंडमार्त्तंड पंचांग तथा श्री गजेंद्र विजय पंचांग का निर्माण जोधपुर के अक्षांश-रेखांश के आधार पर होता है। स्वल्पांतर से निर्णय सागर पंचांग में जोधपुर के रेखांश 730 4′ का प्रयोग किया गया है। दोनों पंचांगों में चित्रापक्षीय अयनांश ग्रहण किया गया है। पं. श्री भवानी शंकर का निर्णयसागर पंचांग संपूर्ण उत्तर भारत में प्रसिद्ध है। श्री गजेंद्र विजय पंचांग एवं नई दिल्ली के श्री विश्वविजय पंचांग दोनों का ग्रहगणित एवं निर्माण पद्धति एक समान है। इन दोनों पंचांगों के आद्य संपादक श्री हरदेव शर्मा त्रिवेदी हैं। नवलगढ़ राजस्थान प्रांत का नवलगढ़ शहर ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 750 18′ तथा उत्तरी अक्षांश 270 51′ पर स्थित है। इन्हीं अक्षांशादि के आधार पर जयपुर ज्योतिष मंत्रालय द्वारा प्रत्यक्षानुभव करके सूक्ष्म दृश्य गणित से वेंकटेश्वर शताब्दी पंचांग तथा पंचवर्षीय श्री सरस्वती पंचांग का निर्माण होता है। दोनों पंचांगों के संपादक पं. ईश्वर दत्त जी शर्मा हैं। राजस्थान के एक और शहर अजमेर से पं. भवर लाल जोशी के आदित्यविजय पंचांग का प्रकाशन होता है। 

चंडीगढ हरियाणा प्रांत में स्थित चंडीगढ़ ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 760 52′ तथा उत्तरी अक्षांश 300 44′ पर स्थित है, जिनके आध् ाार पर श्री मार्त्तंड पंचांग का निर्माण होता है। निरयन पद्धति के इस पंचांग में चित्रापक्षीय अयनांश ग्रहण किया गया है। इस पंचांग के आद्य संपादक पं. श्री मुकुन्दवल्लभ मिश्र हैं। जालंधर पंजाब प्रांत में स्थित शहर जालंधर ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 75़0 18′ तथा उत्तरी अक्षांश 310 21′ पर स्थित है, जिनके आधार पर पंचांग दिवाकर का निर्माण होता है। इस पंचांग में भी चित्रपक्षीय निरयन पद्धति को अपनाया गया है। इस पंचांग के संस्थापक पंदेवी दयालु ज्योतिषी लाहौर वाले हैं। दरभंगा बिहार प्रांत में स्थित दरभंगा शहर ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 850 54′ तथा उत्तरी अक्षांश 260 10′ पर स्थित है। यहां स्थित कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय से विश्वविद्यालय पंचांग का प्रकाशन होता है। यह पंचांग पूर्णतः शास्त्रसम्मत है। मथुरा उत्तरप्रदेश का मथुरा शहर है ग्रीनविच से पूर्वी रेखांश 770 41′ तथा उत्तरी अक्षांश 270 28′ पर स्थित है। भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा के अक्षांशादि के आधार पर श्री ब्रजभूमि पंचांग का निर्माण होता है। इस पंचांग में केतकी चित्रपक्षीय अयनांश का प्रयोग होता है। इस पंचांग के संपादक पं. श्री कौशल किशोर कौशिक हैं। यह पंचांग सन् 1994 ई. से प्रकाशित हो रहा है। 

रामगढ़ (शेखावटी) रामगढ़ (शेखावटी) भारत के मानचित्र पर ग्रीनविच से पूर्वी रेखांश 740 59′ तथा उत्तरी अक्षांश 280 0′ पर स्थित है। रामगढ़ (द्गोखावटी) के अक्षांशादि के आधार पर वेधसिद्ध सूक्ष्मदृश्य गणित से पं. श्री वल्लभ मनीराम पंचांग का निर्माण होता है। इस पंचांग के गणित कर्ता पं. श्री ग्यारसीलाल शास्त्री हैं। श्री वेंकटेश्वर शताब्दी पंचांग, श्री सरस्वती पंचांग एवं श्री वल्लभ मनीराम पंचांग के ग्रह गणित का सिद्धांत समान प्रतीत होता है। अयोध्या अयोध्या भगवान श्री राम की जन्मस्थली के रूप में एक धार्मिक स्थल है। यह ग्रीनविच रेखा से पूर्वी रेखांश 820 12′ तथा उत्तरी अक्षांश 260 47′ पर स्थित है, जिनके आधार पर यहां से श्रीराम जन्मभूमि पंचांग का निर्माण होता है। इस पंचांग के संपादक पं. विंध्येश्वरी प्रसाद शुक्ल हैं। ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु शास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार उपर्युक्त स्थलों के अतिरिक्त उत्तर भारत के कई अन्य शहरों से भी पंचांगों का प्रकाशन होता है, जिनमें ग्वालियर से डॉश्री कृष्ण भालचंद्र शास्त्री मुसलगांवकर द्वारा रचित पंचांग, दतिया (म.प्र.) से प्रकाशित तांत्रिक पंचांग, अहमदाबाद से प्रकाशित संदेश प्रत्यक्ष पंचांग, रुद्रपुर (नैनीताल) से पं. श्री भोलादत्त महतोलिया कृत श्री देवभूमि पंचांग, करौली (राजस्थान) से राजज्योतिषी पं. श्री शिवनारायण शर्मा ‘महेश’ द्वारा संपादित शिवविनोदी मदनमोहन पंचांग आदि प्रमुख हैं…======================================================================

हिंदू धर्म की तरह ही हर धर्म में नया साल मनाया जाता है। लेकिन इसका समय भिन्न-भिन्न होता है तथा तरीका भी। किसी धर्म में नाच-गाकर नए साल का स्वागत किया जाता है तो कहीं पूजा-पाठ व ईश्वर की आराधना कर। आप भी जानिए किस धर्म में नया साल कब मनाया जाता है-
हिंदू नव वर्ष: हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा (इस बार 23 मार्च) से माना जाता है। इसे हिंदू नव संवत्सर या नव संवत भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत के नए साल का आरंभ भी होता है। इसे गुड़ी पड़वा, उगादि आदि नामों से भारत के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है।

इस्लामी नव वर्ष:
 इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम महीने की पहली तारीख को मुसलमानों का नया साल हिजरी शुरू होता है। इस्लामी या हिजरी कैलेंडर एक चंद्र कैलेंडर है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में इस्तेमाल होता है बल्कि दुनियाभर के मुसलमान भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए इसी का इस्तेमाल करते हैं।
ईसाई नव वर्ष: ईसाई धर्मावलंबी 1 जनवरी को नव वर्ष मनाते हंै। करीब 4000 वर्ष पहले बेबीलोन में नया वर्ष 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी । तब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर ने ईसा पूर्व 45वें वर्ष में जब जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में पहली बार 1 जनवरी को नए वर्ष का उत्सव मनाया गया। तब से आज तक ईसाई धर्म के लोग इसी दिन नया साल मनाते हैं। यह सबसे ज्यादा प्रचलित नव वर्ष है।
सिंधी नव वर्ष: सिंधी नव वर्ष चेटीचंड उत्सव से शुरु होता है, जो चैत्र शुक्ल दिवतीया को मनाया जाता है। सिंधी मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरुणदेव के अवतार थे।
सिक्ख नव वर्ष: पंजाब में नया साल वैशाखी पर्व के रूप में मनाया जाता है। जो अप्रैल में आती है। सिक्ख नानकशाही कैलेंडर के अनुसार होला मोहल्ला (होली के दूसरे दिन) नया साल होता है।
जैन नव वर्ष: ज़ैन नववर्ष दीपावली से अगले दिन होता है। भगवान महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन यह शुरू होता है। इसे वीर निर्वाण संवत कहते हैं।

पारसी नव वर्ष:
 पारसी धर्म का नया वर्ष नवरोज के रूप में मनाया जाता है। आमतौर पर 19 अगस्त को नवरोज का उत्सव पारसी लोग मनाते हैं। लगभग 3000 वर्ष पूर्व शाह जमशेदजी ने पारसी धर्म में नवरोज मनाने की शुरुआत की। नव अर्थात् नया और रोज यानि दिन।
हिब्रू नव वर्ष: हिब्रू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन लगे थे । इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है । यह दिन ग्रेगरी के कैलेंडर के मुताबिक 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच आता है।

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