जानिए पथरी (गुर्दा) रोग के ज्योतिषीय योग एवं कारण, निवारण और उपाय– एवं वास्तु जनित  पथरी (गुर्दा) रोग के योग




प्राचीन भारत की चिकित्सा पद्धति और आयुर्वेद में गहरा सम्बन्ध है आयुर्वेद में आयुतात्वो की विवेचना की जाती है और ज्योतिर्विज्ञान में कालतत्व का अध्यन किया जाता है जिसे कालचक्र कहते है… आयुर्वेद प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति पर आधारित है प्राचीन काल में योग ,मंत्र एवं मनोविज्ञान के द्वारा शल्यचिकित्सा की जाती थी तथा जडी -बूटियों से ओषधियो का निर्माण होता था आयुर्वेद एवं ज्योतिष दोनों का सम्बन्ध मानव से अलग नही है ज्योतिर्विज्ञान में तारा पुंजो के तीन समुदाय है ,जिनका सम्बन्ध आयुर्वेद के त्रिदोष से है जब विज्ञानं ने इतनी प्रगति नही की थी तब जन्मांग चक्रो के आधार पर वैद्य रोगों का परिक्षण करते थे ,रोगी के बाह्य लक्षण उस आंतरिक रोग के परिचायक होते थे जन्मकुंडली रोग की सम्पूर्ण अवस्थावो को प्रर्दशित कर सकता है.. 


भौतिक चिकित्सा प्रणाली से अधिक सुक्ष्म एवं प्रभावशाली उपचार का माध्यम ज्योतिष शास्त्र है इस सौर मंडल में संचालित सभी मुलभुत शक्तियो का प्रतिनिधित्व ग्रह ही कर रहे है यही ग्रह हमारे शरीर पर भी प्रभाव रखते है जब विरोधी शक्तिया निषेधात्मक रश्मियों के रूप में हमारे आतंरिक ग्रह मंडल को बाधित करती है ,तब रोग की उत्पत्ति होती है एक चिकित्सक रोग होने पर केवल परिक्षण के उपरांत ही रोग क्या है ?यह बता पाता है 


भारतीय चिकित्सा शास्त्र के अनुसार आयुर्वेद, जो अथर्ववेद  का उपांग है, ब्रह्मा द्वारा अश्विनी कुमारों को सिखाया गया, उन्होंने यह ज्ञान इन्द्र को दिया और इन्द्र ने धन्वन्तरि को सिखाया। धन्वन्तरि ने मुनियों को यह ज्ञान दिया। भारतीय चिकित्सा पद्धति में आयुर्वेद के अनुसार किसी भी व्यक्ति का स्वभाव या शरीर की संरचना वात, पित्त व कफ पर निर्भर करती है। रासायनिक प्रक्रिया शरीर की भौतिक व मानसिक क्रियाओं पर नियंत्रण रखती है। 


चिकित्सा ज्योतिष के विषय में ज्योतिष शास्त्र में बहुत कुछ लिखा गया है। कुछ नियम पुराणों में भी दिए गए हैं। विष्णु वेद-पुराण के अनुसार भोजन करते समय जो नियम दिए गए हैं वह हमें बताते हैं कि भोजन करते समय व्यक्ति को अपना मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा में रखना चाहिए और ऐसा इसलिए क्योंकि उससे पाचन क्रिया अनुकूल बनी रहती है। ज्योतिष के अनुसार सभी ग्रह शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं ग्रहों के प्रभाव स्वरूप हमें फल प्राप्त होते हैं और स्वास्थ्य का हाल जाना जा सकता है। जब कोई भी ग्रह पीड़ित होकर लग्न, लग्नेश, षष्ठम भाव अथवा अष्टम भाव से संबंध बनाता है तो ग्रह से संबंधित अंग रोग प्रभावित हो सकता है। प्रत्येक ग्रह शरीर के किसी न किसी अंग को प्रभावित अवश्य करता है या उससे संबंधित बीमारी को दर्शाता है 


किसी भी रोगी जातक की कुंडली का विश्लेषण करते समय सबसे पहले ., 6, 8 भावों के ग्रहों की शक्ति का आकलन करना चाहिए। जन्मकुंडली के अनुसार शरीर का विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव और उनसे मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं, लेकिन इसके साथ ही साथ कुण्डली में रोगों का अध्ययन करते समय इन तथ्यों का अध्ययन करते हुए ग्रहों की युति, प्रकृति,दृष्टि, उनका परमोच्चा या परम नीच की स्थिति का भी अध्ययन आवश्यक है तभी हम किसी निर्णय पर पहुंच सकते हैं।


यदि पूर्व ज्ञान हो तो चिकित्सा शास्त्र में आशातीत सफलता प्राप्त होते देर नही लगता…..कई बार अध्यात्मवाद ,ज्योतिष तथा इष्ट साधन बहुत सहायक होते है इस तथ्य को हम माने या न माने चिकित्सा शास्त्र हो या ज्योतिषशास्त्र यह हमारे पूर्वजो की ही देन है चंद्रमा पृथ्वी के सबसे करीब का उपग्रह है समीप होने के कारण यह मानव जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है प्रत्येक जीव सूर्य ,चंद्रमा एवं अन्य ग्रहों ,१२ राशियो से प्रभावित होते है पृथ्वी सौरमंडल का महत्वपूर्ण हिस्सा है पृथ्वी में पाए जाने वाले प्रत्येक तत्व का सम्बन्ध ग्रहों से है मानव एवं संपूर्ण ब्रम्हांड एक दुसरे पर अन्योनाश्रित है
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चरक संहिता के अनुसार त्रिदोषों की शरीर में स्थिति इस प्रकार है:—– 


कमर, जांघों, पैरों, हड्डियों व बड़ी आंत पर वात का, रक्त, पसीना, रस, लसीका व छोटी आंत पर पित्त का, छाती, सिर, गर्दन, जोड़ों व आंतों के ऊपरी हिस्से व वसा पर कफ का प्रभाव रहता है। व्यक्ति के शरीर में वात, पित्त और कफ में किसकी अधिकता होगी यह उस व्यक्ति के ग्रहों के अंक पर निर्भर करता है। जब तीनों में से किसी भी एक में बढोतरी होती है तो स्वास्थ्य पर उसका असर अवश्य पड़ता है। ज्योतिष में तनु भाव से जातक का स्वास्थ्य देखा जाता है।











गुर्दे में पथरी या स्टोन बनना आम समस्या है। इसमें रोगी को पेट में दर्द होता है। कई बार पेशाब होना रुक जाता है। मूत्र मार्ग में संक्रमण और पानी कम पीने से गुर्दे में पथरी बनने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा होती हैं। इसके साथ ही रोजमर्रा में कुछ ऐसे खाद्य पदार्थ भी हैं, जिनका सेवन पथरी बनने का कारण हो सकता है। उन्हीं के अंशों से पथरी के क्रिस्टल गुर्दे में इकट्ठे होकर जुड़ जाते हैं और स्टोन का रूप धारण करते जाते हैं। धीरे-धीरे इन छोटी पथरियों पर क्रिस्टल जमा होते जाते हैं और पथरी बड़ी पथरी का रूप धारण कर लेती है। 




अमूमन गुर्दे की पथरी दो तरह की होती है:—–
ऑक्जेलेट पथरी—- 
फॉस्फेट पथरी—- 


इसके साथ-साथ अतिरिक्त सिस्टीन और यूरिक एसिड की पथरी भी कभी-कभी होती देखी जाती है, लेकिन ऑक्जेलेट पथरी बनना सामान्य बात हो गई है। 


ऑक्जेलेट पथरी 
टमाटर, बैंगन, आँवला, चीकू, काजू, खीरा, पालक आदि का उपयोग कम से कम या न ही करें तो रोगी के लिए बेहतर है।


यूरिक एसिड पथरी 
फूलगोभी, कद्दू, मशरूम, बैंगन और अधिक प्रोटीनयुक्त आहार से यूरिक एसिड पथरी के रोगियों को परहेज करना चाहिए। 


फॉस्फेट पथरी 
फॉस्फेट पथरी के रोगियों को दूध और इससे बने उत्पाद, मछली और मांसाहार से बचना चाहिए। 


क्या खाएँ :—— 
केला : केला विटामिन बी-6 का प्रमुख स्रोत है, जो ऑक्जेलेट क्रिस्टल को बनने से रोकता है व ऑक्जेलिक अम्ल को विखंडित कर देता है।
नारियल पानी :—– यह प्राकृतिक पोटेशियम युक्त होता है, जो पथरी बनने की प्रक्रिया को रोकता है और इसमें पथरी घुलती है। जिन्हें बार-बार पथरी होने की आशंका है उन्हें अपने खाने में इन चीजों को शामिल करना चाहिए। 
करेला :—- करेले में पथरी न बनने वाले तत्व मैग्नीशियम तथा फॉस्फोरस होते हैं और वह गठिया तथा मधुमेह रोगनाशक है।
चना :—– जो खाए चना वह बने बना। पुरानी कहावत है। चना पथरी बनने की प्रक्रिया को रोकता है।
गाजर :—– गाजर में पायरोफॉस्फेट और पादप अम्ल पाए जाते हैं जो पथरी बनने की प्रक्रिया को रोकते हैं। गाजर में पाया जाने वाला केरोटिन पदार्थ मूत्र संस्थान की आंतरिक दीवारों को टूटने-फूटने से बचाता है। 


गुर्दे की पथरी जिन्हें बार-बार हो रही है उन्हें खान-पान में परहेज बरतना चाहिए, ताकि समस्या से बचा जा सकता है। साथ ही एक स्वस्थ व्यक्ति को तो प्रतिदिन 3-5 लीटर पानी पीना चाहिए तथा मूत्र रोग विशेषज्ञों के अनुसार चौबीस घंटे में हमारे शरीर में . लीटर पेशाब बनना चाहिए। यदि किसी को एक बार पथरी की समस्या हुई, तो उन्हें यह समस्या बार-बार हो सकती है। अतः खानपान पर ध्यान रखकर पथरी की समस्या से निजात पाई जा सकती है।


=====क्या ना खाएँ :—– 
पथरी बनना रोकने के लिए और जिन लोगों को गुर्दे की पथरी की शिकायत है, वे बीज वाले फल और वे सब्जियाँ जिनमें ऑक्जेलेट क्रिस्टल की मात्रा अधिक हो, उन्हें न खाएँ। हरी सब्जियों विशेषकर पालक, चौलाई में ऑक्जेलेट पत्तियों में सिस्टोलिथ के रूप में विद्यमान रहता है। जिन्हें पथरी रोगों की संभावना रहती है, उन्हें इन सब्जियों का सेवन सावधानी से करना चाहिए।
—-इस रोग से पीड़ित रोगी को प्रोटीन खाद्य कम खानी चाहिए।
—-व्यक्ति को रात के समय में सोते वक्त कुछ मुनक्का को पानी में भिगोने के लिए रखना चाहिए तथा सुबह के समय में मुनक्का पानी से निकाल कर, इस पानी को पीना चाहिए। ऐसा कुछ दिनों तक लगातार करने से गुर्दे का रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
—रोगी जब तब ठीक न हो जाए तब तक उसे नमक नहीं खाना चाहिए।
—गुर्दे के रोगों से बचने के लिए कम से कम ढाई किलो पानी सभी व्यक्ति को प्रतिदिन पीना चाहिए।
—पानी में नींबू के रस को निचोड़ कर पीये तो गुर्दे साफ हो जाते हैं और गुर्दे में कोई रोग नहीं होता है।




पथरी (गुर्दा) रोग के लक्षण:—-


गुर्दा मानव शरीर का एक महत्वपूर्ण तंत्र है, जिसका मुख्य कार्य रक्त को शोधित करना है। शरीर की कोशिकाओं को, अपना कार्य संपन्न करने के लिए, प्रोटीन की आवश्यकता है। जब कोशिकाओं द्वारा प्रोटीन का विभाजन किया जाता है, तो, अवशेष के रूप में, नाइट्रोजन रह जाती है। गुर्दे इस नाइट्रोजन को छान कर बाहर निकाल, रक्त को शोधित करते हैं। गुर्दे प्रति दिन प्रति मिनट लगभग एक लीटर रक्त का शोधन करते हैं। 


गुर्दे रोगी होने पर रक्त का शोधन नही कर पाते, जिससे विषाक्त पदार्थ, रक्त द्वारा, सारे शरीर में फैल जाते हैं और मानव की कार्यक्षमता कम हो जाती है। फिर मानव शरीर रोगी हो जाता है। गुर्दे के रोग का एक मुख्य कारण मधुमेह है। गुर्दे की यह खास बीमारी केवल मधुमेह के रोगी को ही प्रभावित करती है। लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि यह बीमारी प्रत्येक मधुमेह के रोगी को हो। इस रोग के मुख्य लक्षणों में पैरों में सूजन, पेशाब में प्रोटीन का जाना, इनसुलिन की आवश्यकता का हो जाना आदि हैं। गुर्दा काम न करने के अन्य लक्षण हैं भूख न लगना, उल्टी आना पेशाब का पीलापन कम होना। गुर्दे जब पूरी तरह काम नहीं करते, तो यूरिया तथा नाईट्रोजन जैसे नशीले पदार्थ रक्त में इकट्ठे होने लगते हैं। खून में इनकी बढ़ती हुई मात्रा ही रोग की अंतिम अवस्था का संकेत है। गुर्दे के रोगों में गुर्दे का दर्द, गुर्दे की पथरी आदि भी आते हैं, जो बहुत ही तकलीफदायक हैं।  
गुर्दा रोग का एक मुख्य कारण मधुमेह है। मधुमेह के रोगी को नियमित रूप से इनसुलिन की आवश्यकता होती है। जब रोगी को स्वस्थ हो जाने का अहसास होने लगता है, तो वह इनसुलिन की मात्रा कम कर देता है, या उसका उपयोग बिलकुल समाप्त कर देता है, तो इसका प्रमुख कारण है कि रोगी को गुर्दा रोग ही हो गया है। जब रोगी में शर्करा का स्तर कम होने लगता है, तो उसे लगता है कि वह ठीक हो रहा है। दरअसल यह गुर्दे के रोग की शुरुआत है। आम लोगों की अपेक्षा रोगी को पेशाब में जलन, मवाद आना, या पेशाब बार-बार आना ज्यादा होते हैं । रोगी के गुर्दों में खनू के प्रवाह में कमी होना भी मधुमेह के प्रभावों में से एक है। गुर्दे की यह खास बीमारी केवल मधुमेह के रोगी को ही प्रभावित करती है। लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि यह बीमारी प्रत्येक मधुमेह रोगी को हो। इस रोग के मुख्य लक्षणों में पैरों में सूजन, पेशाब में प्रोटीन या अल्बुमिन का जाना, इनसुलिन की आवश्यकता कम हो जाना आदि हैं। गुर्दा काम न करने के अन्य लक्षण हैं भूख न लगना, उल्टी आना, पीलापन, पेशाब का कम होना। गुर्दे जब पूरी तरह काम नहीं करते, तो यूरिया तथा नाइट्रोजन जैसे नशीले पदार्थ रक्त में इकट्ठे होने लगते हैं। खून में इनकी बढ़ती हुई मात्रा ही रोग की अंतिम अवस्था का संकेत है।
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जानिए गुर्दा (पथरी) रोग के ज्योतिषीय कारणः—– 


ज्योतिष की दृष्टि से काल पुरुष की कुंडली में सप्तम भाव गुर्दों का स्थान है। सप्तम भाव का कारक ग्रह शुक्र होता है। इसलिए शुक्र सप्तमांश, सप्तम भाव का दुष्प्रभावों में रहने के कारण गुर्दे का रोग होता है। इसके साथ अगर लग्नेश भी दुष्प्रभावों में हो, तो गुर्दों के रोग के कारण जातक की मृत्यु भी हो जाती है। ग्रह गोचर,, दशा-अंतर्दशा के अनुसार रोग का समय एवं उसकी अवधि निर्धारित किये जाते हैं।


ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रत्येक ग्रह के शुभ और अशुभ दोनों ही प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पड़ते हैं। जैसे प्रत्येक वरदान के पीछे कोई ना कोई शाप भी छुपा होता है वैसे ही प्रत्येक ग्रह की अच्छाइयों के पीछे भी कोई ना कोई समस्या अवश्य छुपी होती है चाहे वह आपकी कुंडली में कितनी ही अच्छी स्थिति में क्यों ना हो। हमारी पूरी जिंदगी जीवन से लेकर मृत्यु तक ग्रहों के प्रभाव में होती है, जिसमें हमारा कार्य, शिक्षा, विवाह, संतान, सामाजिक और आर्थिक स्थिति, हमारी कद – काठी, सब कुछ। यही कारण है की शरीर में रोग होना अवश्यम्भावी है, हमें संपूर्ण जीवन में प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के रोग किसी ना किसी ग्रह से सम्बंधित होते हैं। 


विभिन्न लग्नों में पथरी (गुर्दा) रोग के कारण:—- 


मेष लग्न:—- शुक्र बुध के साथ ग्यारहवें भाव में हो और मंगल सप्तम भाव में शनि से दृष्ट, चंद्र या सूर्य राहु-केतू के प्रभाव में हो, तो जातक को गुर्दे का रोग होता है। 


वृष लग्न:— गुरु-मंगल लग्न में, शुक्र अष्टम भाव में, शनि पंचम में, सूर्य और चंद्र पर राहु या केतु की दृष्टि हो, तो गुर्दा रोग के कारण जातक की मृत्यु होती है। 


मिथुन लग्न:—- सप्तम भाव में मंगल, शुक्र, शनि, दशम भाव में बुध, नवम भाव में सूर्य, राहु अष्टम में हो, तो जातक को गुर्दा रोग होता है। 
कर्क लग्न:— शुक्र-बुध सप्तम भाव में, शनि द्वितीय भाव में, राहु सप्तम भाव में, सूर्य अष्टम भाव में हो, तो गुर्दा रोग होता है। 
सिंह लग्न:—– शनि-शुक्र अष्टम भाव में, गुरु-बुध सप्तम भाव में, सूर्य षष्ठ भाव में, राहु दशम भाव में चंद्र के साथ हो, तो जातक को गुर्दे का रोग होता है। 
कन्या लग्न:— मंगल लग्न में, चंद्र, शुक्र, शनि सप्तम भाव में, बुध अष्टम भाव में, सूर्य नवम में राहु से दृष्ट हो, तो जातक को गुर्दे का रोग होता है। 
तुला लग्न:—- गुरु लग्न में, शुक्र अष्टम में मंगल के साथ हो, चंद्र लग्न में राहु से दृष्ट हो, तो जातक को गुर्दे का रोग होता है। 
वृश्चिक लग्न:—- षष्ठेश, शुक्र बुध लग्न में हों, सूर्य द्वादश में राहु से दृष्ट हो, तो गुर्दा रोग होता है। 
धनु लग्न:—– शुक्र, बुध ग्यारहवें भाव में, सप्तम भाव पर शनि की दृष्टि हो, सूर्य तथा चंद्र राहु-केतु से पीड़ित हों और लग्नेश पाप ग्रह के साथ हो तो जातक को गुर्दा रोग होता है। 
मकर लग्न:— गुरु सप्तम भाव में, चंद्र ग्यारहवें भाव में राहु से युक्त हो, शुक्र पंचम भाव में, शनि, बुध षष्ठ भाव में हो , तो जातक को गुर्दे का रोग होता है। 
कुंभ लग्न:— शनि-शुक्र दशम भाव में, चंद्र सप्त भाव में, बुध के साथ सूर्य अष्टम भाव में राहु से दृष्ट हो, तो जातक को गुर्दों का रोग होता है। 
मीन लग्न:— शनि सप्तम भाव में, सूर्य लग्न में, शुक्र-बुध द्वादश भाव में, गुरु अष्टम भाव में और राहु पंचम में हों, तो जातक को गुर्दा रोग होता है। 


उपर्युक्त सभी योग जातक की चलित कुंडली के आधार पर हैं। संबंधित गोचर ग्रह एवं दशा-अंतर्दशा से ही जातक के रोग का समय बताया जाएगा।   


उपाय—शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अंगूर एक अत्यंत महत्वपूर्ण फल है। अंगूर बहुत ही पोषक हैं और आसानी से पच जाते हैं। कुदरत की इस बेमिसाल देन से शरीर का कायाकल्प हो जाता है। 


अंगूर दो रंगों में पाये जाते हैं- हल्के हरे और काले। अंगूर किसी भी रंग का हो, लेकिन अपने औषधीय गुणों के कारण महत्वपूर्ण फल है, जो तपेदिक, कैंसर, मसूडों से खून आना, गुर्र्दों की खराबी, रक्त विकार, आमाशय में घाव, गांठें, बच्चों को सूखा रोग इत्यादि को दूर करने में सहायक होता है। 


अंगूरों द्वारा रोग निवारण:—- 


गुर्दा विकार:—- अंगूर के सेवन से मूत्र अधिक आता है, जिसके कारण गुर्दों की अच्छी सफाई हो जाती है।गुर्दे तथा मूत्राशय की पथरी की पीड़ा से आराम मिलता है और पथरी घुल कर निकल जाती है। 


कैंसर:—- रोगी को उपवास करवा कर प्रतिदिन एक किलो अंगूर खिलाएं। अन्य कुछ न खाने को दें। इससे कुछ दिनों में कैंसर ठीक होने लगता है। 


दमा:— रोगी को प्रतिदिन अंगूर का सेवन करवाएं। दमा ठीक हो जाएगा। वैद्यों और हकीमों का मानना है कि अंगूर के बाग़ में जा कर रोगी अगर लंबे-लंबे सांस ले, तो दमा रोग जल्दी ठीक होता है। 


हृदय रोग:—- हृदय रोग में भी अंगूर विशेष लाभकारी है। इसे रामबाण औषधि की संज्ञा भी दी गयी है। दिल का दर्द, उसकी धड़कन तथा अन्य हृदय रोगों में अंगूर विशेष लाभकारी है। 


यकृत विकार:—- अंगूरों में मौजूद ग्लूकोज यकृत की कार्यप्रणाली को ठीक करता हैं। रक्त का शोधन भी करता है। पाचन शक्ति: अंगूरों के सेवन से पाचन शक्ति बढ़ती है, क्योंकि फल में मौजूद ग्लूकोज और अम्ल पाचन विकार को दूर कर, भूख और पाचन शक्ति बढ़ाते हैं । 


शराब छुड़ाना:— शराब पीने वाला व्यक्ति अगर भोजन के साथ नियमित अंगूर खाने लगे, तो शराब से उसे, अपने आप ही, घृणा होने लगती है। 


===ध्यान देंः—- 


अंगूर बहुत जल्द खराब हो जाते हैं। इसलिए अंगूरों को अधिक समय तक नहीं रखना चाहिए। अतः ताजे, मीठे और पके हुए अंगूर खाना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। 


===उपाय—प्राकृतिक चिकित्सा में योगासन भी गुर्दे के रोग को दूर करने में विशेष सक्षम हैं। थोड़े से प्रयास से किये गये कुछ योगासन गुर्दे के रोगी को पूर्णतः स्वस्थ बना सकते हैं। योगासनों में धनुरासन, हलासन, पश्चिमोत्तनासन, भुजंगासन, उष्ट्रासन, अर्ध-मत्स्येंद्रासन, गोमुखासन, शशांकासन गुर्दे के रोग में विशेष लाभकारी है। 
इन आसनों द्वारा गुर्दे पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिससे गुर्दे में आये हुआ विकार समाप्त हो जाता और रोगी स्वस्थ हो जाता है। इन आसनों को नियमित रूप से करने से रोग पूर्णतया समाप्त हो जाता है और गुर्दा तंत्र सुचारु रूप से कार्यशील हो जाता है। 


सावधानी: पाठक इन सभी आसनों को योग विशेषज्ञ की देखरेख में ही करें, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है।
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आपका मूलांक और संभावित रोग :—–


आपको कौन-से रोग सता सकते हैं इसका संबंध आपके मूलांक से भी है। आइए जानें आपको कौन-कौन से रोग हो सकते हैं—-
अंक . (जन्म तारीख: 1, 1., 19, 28) : मूलांक १ वाले व्यक्ति पित्त से संबंधित बीमारियां परेशान करती हैं। पित्त के घटने-बढ़ने पर समस्याएं उत्पन्न होती हैं। अंक ज्योतिष के अनुसार मूलांक 1 वाले लोगों को दिल की बीमारियां, दांत के रोग,सिर दर्द, नेत्र रोग, मूत्र संबंधी रोग आदि होने की संभावना रहती है।
अंक 2 (जन्म तारीख: 2, 11, 20, 29) : मूलांक 2 के लोगों को गैस के रोग, आंतों में सूजन, ट्यूमर, मानसिक दुर्बलता,संबंधी रोग आदि होने की संभावना रहती है।
अंक 3 (जन्म तारीख: 3, 12, 21, 30): मूलांक 3 वाले लोगों को स्नायु तंत्र यानी नर्वस सिस्टम के रोग,पीठ व पैरों में दर्द, चर्म रोग, गैस, हड्डियों के दर्द का रोग, गले का रोग और लकवा होने की आशंका रहती है।
अंक 4 (जन्म तारीख: 4, 13, 22, 31) : मुलांक ४ वाले लोगों को सांस की बीमारियां, दिल के रोग, ब्लड-प्रेशर, पैरों में चोट, अनीमिया, नींद की समस्य़ा, आंखों की समस्या, सिरदर्द, पीठ दर्द आदि की शिकायत हो सकती है।
अंक 5 (जन्म तारीख: 5, 14, 23) : मूलांक 5 के लोगों को आमतौर पर अपच और असिडिटी की समस्या से दो-चार होना पड़ता है। मानसिक तनाव, सिरदर्द, जुकाम, कमजोर नजर, हाथ और कंधों में दर्द, लकवा जैसे रोग होने की संभावना रहती है।
अंक 6 (जन्म तारीख: 6, 15, 24) : जिन लोगों का मूलांक 6 है उन्हें गले, गुर्दे, छाती, मूत्र- विकार, हृदय रोग एवं गुप्तांगों के रोग, डायबीटीज, पथरी, फेफड़ों के रोग आदि होने की संभावना रहती है।
अंक 7 (जन्म तारीख: 7, 16, 25) : मूलांक 7 के लोगों को बदहजमी, पेट के रोग, आंखों के नीचे काले धब्बे, सिरदर्द, खून की खराबी आदि की संभावना रहती हैं… फेफड़े संबंधी रोग, चर्म रोग और याददाश्त की कमजोरी का सामना भी करना पड सकता है।
अंक 8 (जन्म तारीख: 8, 10, 19, 28): मूलांक 8 के लोग लीवर के रोग, वात रोग सता सकते हैं। इसके अलावा, इन्हें मूत्र-संबंधी रोग आदि की संभावना है। इसके अलावा इन्हें डिप्रेशन की शिकायत होने की संभावना रहती है।
अंक 9 (जन्म तारीख: 9, 18, 27): मूलांक 9 वाले लोगों को पेट के विकारों, आग से जलने, मूत्र प्रणाली में विकार, बुखार-सिरदर्द, दांत के दर्द, बाबासीर, रक्त विकार, चर्म रोग आदि होने की संभावना रहती हैं..
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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मनुष्य द्वारा किये गए अशुभ कर्मों के प्रभाव से उसे जीवन में रोग और व्याधियों का कष्ट भोगना ही पड़ता है। जन्म कुंडली के पहले, छठे तथा आठवें भाव में नीच, अस्त, पाप ग्रस्त अथवा शत्रु ग्रह हों तो वे अपनी दशा और अन्तर्दशा में रोगकारक होकर जातक को कष्ट पहुंचाते हैं। इसके उपचार हेतु योग्य एवं अनुभवी रत्न विशेषज्ञ के परामर्श से उचित तथा शुभ रत्न धारण करना सही उपाय माना जाता है, जबकि अपनी मर्जी से शुभ-अशुभ की विवेचना किये बिना अशुभ और दोषपूर्ण रत्न धारण करना कष्ट एवं परेशानी का कारण बन जाता है। अपनी विशिष्ट आभा, दुर्लभता और दैवीय गुणों की दृष्टि से प्राचीन ग्रंथों में चौरासी रत्नों का उल्लेख मिलता है। इनमें से मोती, माणिक्य, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गौमेद और लहसुनिया ”नवरत्न ” कहलाते हैं, जबकि शेष रत्न ”उपरत्नों” की श्रेणी में आते हैं। जन्म कुंडली में जो ग्रह पीड़ादायक होता है, उससे सम्बंधित रत्न अथवा उपरत्न को पूर्ण विधि-विधान से मन्त्रों द्वारा सिद्ध करके शुभ नक्षत्र में धारण किया जाता है। इससे उस रत्न के शुभ प्रभाव मिलने लगते हैं।


कुछ प्रमुख शारीरिक रोग, उससे सम्बंधित ग्रह उससे सम्बंधित दान और मंत्र – 


====सूर्य:— 


रोग:—- हड्डियों से सम्बंधित रोग, दन्त रोग, दृष्टि, खून का संचरण, गंजापन, तेज बुखार, कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता, दिल सम्बंधित बीमारी इत्यादि। पित्त, वर्ण, जलन, उदर, सम्बन्धी रोग, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी, न्यूरोलॉजी से सम्बन्धी रोग, नेत्र रोग, ह्रदय रोग, अस्थियों से सम्बन्धी रोग, कुष्ठ रोग, सिर के रोग, ज्वर, मूर्च्छा, रक्तस्त्राव, मिर्गी इत्यादि.
दान:— गेंहूँ, शक्कर, लाल चन्दन, तांबा, सोना, लाल वस्त्र, माणिक्य इत्यादि। 
दिन:—– रविवार 
मन्त्र:—- ॐ हृं हृं स: सूर्याय नम:।


===चन्द्रमा:—-
रोग:—- मानसिक कमजोरी, डिप्रेशन, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, अनिद्रा, कमजोरी, नर्वस सिस्टम की समस्या, पागलपन इत्यादि। ह्रदय एवं फेफड़े सम्बन्धी रोग, बायें नेत्र में विकार, अनिद्रा, अस्थमा, डायरिया, रक्ताल्पता, रक्तविकार, जल की अधिकता या कमी से संबंधित रोग, उल्टी किडनी संबंधित रोग, मधुमेह, ड्रॉप्सी, अपेन्डिक्स, कफ रोग,मूत्रविकार, मुख सम्बन्धी रोग, नासिका संबंधी रोग, पीलिया, मानसिक रोग इत्यादि.
दान:—- सफ़ेद वस्त्र, गाय का दूध, चावल, दही, खीर, सफ़ेद चन्दन, मोती इत्यादि। 
दिन:— सोमवार 
मन्त्र:—- ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः। 


====मंगल:—– 
रोग:— क्रोध, झुंझलाहट, रक्त विकार, बवासीर, भगन्दर, गुप्तांगो में रोग, ऑपरेशन, हड्डियों का टूटना, दुर्घटना, ट्यूमर, कैंसर इत्यादि।गर्मी के रोग, विषजनित रोग, व्रण, कुष्ठ, खुजली, रक्त सम्बन्धी रोग, गर्दन एवं कण्ठ से सम्बन्धित रोग, रक्तचाप, मूत्र सम्बन्धी रोग, ट्यूमर, कैंसर, पाइल्स, अल्सर, दस्त, दुर्घटना में रक्तस्त्राव, कटना, फोड़े-फुन्सी, ज्वर, अग्निदाह, चोट इत्यादि.

दान:—– मसूर दाल, लाल वस्त्र, ताम्बा, लाल चन्दन, मूंगा इत्यादि। 
दिन:— मंगलवार 
मन्त्र:— ॐ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः। 


=====बुध:—- 
रोग:—- हकलाना, चर्म रोग, अवसाद, कमजोर यादाश्त, स्नायु तंत्र सम्बंधित समस्या, अस्थमा, आंत सम्बन्धी रोग इत्यादि।छाती से सम्बन्धित रोग, नसों से सम्बन्धित रोग, नाक से सम्बन्धित रोग, ज्वर, विषमय, खुजली, अस्थिभंग, टायफाइड, पागलपन, लकवा, मिर्गी, अल्सर, अजीर्ण, मुख के रोग, चर्मरोग, हिस्टीरिया, चक्कर आना, निमोनिया, विषम ज्वर, पीलिया, वाणी दोष, कण्ठ रोग, स्नायु रोग, इत्यादि.
दान:—- मूंग की दाल, हरे वस्त्र, नारियल, सोना, पन्ना इत्यादि।
दिन:— बुधवार 
मन्त्र:— ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम:। 


====गुरु:—– 
रोग:— मोटापा, लीवर सम्बधित रोग, पीलिया, थॉयरॉयड, मधुमेह, कैंसर, ट्यूमर, कान में रोग इत्यादि।
लीवर, किडनी, तिल्ली आदि से सम्बन्धित रोग, कर्ण सम्बन्धी रोग, मधुमेह, पीलिया, याददाश्त में कमी, जीभ एवं पिण्डलियों से सम्बन्धित रोग, मज्जा दोष, यकृत पीलिया, स्थूलता, दंत रोग, मस्तिष्क विकार इत्यादि. 
दान:—–चने की दाल, पीले वस्त्र, सोना, मिठाइयाँ, पीले फल, पुस्तकें, पुखराज इत्यादि। 
दिन:—- बृहस्पतिवार 
मन्त्र:—-ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरुवे नम:।




====शुक्र:—– 


रोग: —लकवा, गुप्तांगो में रोग और कमजोरी, खून की कमी, पथरी, मूत्राशय सम्बन्धी रोग इत्यादि।
दृष्टि सम्बन्धित रोग, जननेन्द्रिय सम्बन्धित रोग, मूत्र सम्बन्धित एवं गुप्त रोग, मिर्गी, अपच, गले के रोग, नपुंसकता, अन्त:स्त्रावी ग्रन्थियों से संबंधित रोग, मादक द्रव्यों के सेवन से उत्पन्न रोग, पीलिया रोग इत्यादि. 


दान:—- चावल, सफ़ेद वस्त्र, दूध, दही, सफ़ेद चन्दन, सुगन्धित द्रव्य और इत्र, ओपल इत्यादि। 
दिन:— शुक्रवार 
मन्त्र:—- ऊं द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम:।


=====शनि:—-


रोग:—– लकवा, पेट की बीमारियाँ, गठिया, वायु विकार, सिर दर्द, ह्रदय रोग, कैंसर, पैरों का फ्रैक्चर, व्यसन इत्यादि।शारीरिक कमजोरी, दर्द, पेट दर्द, घुटनों या पैरों में होने वाला दर्द, दांतों अथवा त्वचा सम्बन्धित रोग, अस्थिभ्रंश, मांसपेशियों से सम्बन्धित रोग,                 लकवा, बहरापन, खांसी, दमा, अपच, स्नायुविकार इत्यादि. 


दान:—-लोहे और लकड़ी के फर्नीचर, लोहे के बर्तन, सरसों या तिल का तेल, नीला कपडा, उड़द की दाल, नीलम इत्यादि। 
दिन:—- शनिवार 
मन्त्र:— ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नम:।


===राहु—–:


—-रोग:—- पागलपन, कुष्ठ रोग, गुर्दा सम्बन्धी रोग, अल्सर, कैंसर, अल्सर, उच्च रक्तचाप, पेट सम्बन्धी बीमारियाँ, वायु विकार, ज़हरीले जीव जंतुओं के काटने के कारण होने वाले रोग। जब जनम कुंडली में  राहु पाप ग्रहों से युत  या दृष्ट हो , छटे -आठवें -बारहवें  भाव में स्थित हो तो चर्म रोग,शूल,अपस्मार ,चेचक वात शूल, दुर्घटना, कुष्ठ ,सर्प दंश ,हृदय रोग,पैर में चोट तथा अरुचि इत्यादि रोग होते हैं | मस्तिष्क सम्बन्धी विकार, यकृत सम्बन्धी विकार, निर्बलता, चेचक, पेट में कीड़े, ऊंचाई से गिरना, पागलपन, तेज दर्द, विषजनित परेशानियां, किसी प्रकार का रियेक्शन, पशुओं या जानवरों से शारीरिक कष्ट, कुष्ठ रोग, कैंसर इत्यादि.
—-जब कर्क में  राहु हो तो जातक मनोरोगी ,नजला जुकाम से पीड़ित ,माता के कष्ट से युक्त होता है |
–जब सिंह में राहु  हो तो जातक ह्रदय या उदररोगी राजकुल का विरोधी तथा अग्नि विष आदि से कष्ट उठाने वाला होता है | |
–जब तुला मे राहु हो तो जातक गुर्दे के दर्द से पीड़ित ,व्यापार से लाभ उठाने वाला होता है |
—–संतान भाव में स्थित राहु से संतान चिंता ,उदर रोग ,शिक्षा में बाधा ,वहम का शिकार होता है |
—-जाया भाव में स्थित राहु से  विवाह में विलम्ब या बाधा ,स्त्री को कष्ट ,व्यर्थ भ्रमण ,कामुकता  ,मूत्र विकार ,दन्त पीड़ा तथा प्रवास में कष्ट उठाने वाला होता है |
—–आयु भाव में स्थित राहु से पैतृक धन संपत्ति की हानि,कुकृत्य करने वाला ,बवासीर का रोगी ,भारी श्रम से वायु गोला ,रोगी तथा 32 वें वर्ष में कष्ट प्राप्त करने वाला होता है |
——-व्यय भाव में स्थित राहु से दीन, पसली में दर्द से युक्त ,असफल ,दुष्टों का मित्र ,नेत्र व पैर का रोगी,कलहप्रिय,बुरे कर्मों में धन का व्यय करने वाला ,अस्थिर मति का होता है |
—–जब राहु  शत्रु –नीचादि राशि का पाप युक्त,दृष्ट हो कर 6-8-12 वें स्थान पर हो तो उसकी अशुभ दशा में सर्वांग पीड़ा ,चोर –अग्नि –शस्त्र से भय ,विष या सर्प से भय ,पाप कर्म के कारण बदनामी,असफलता ,विवाद ,वहम करने की मनोवृत्ति ,कुसंगति से हानि ,वात तथा त्वचा रोग ,दुर्घटना से भय होता है |
(राहु पर किसी अन्य शुभाशुभ ग्रह कि युति या दृष्टि के प्रभाव से उपरोक्त राशि फल में शुभाशुभ परिवर्तन भी संभव है )


दान :—- काला वस्त्र, कोयला, लोहे के बर्तन, काली तिल, सरसों का तेल, गोमेद इत्यादि। 
दिन :—- शनिवार 
मन्त्र :— ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:। 


जब जन्मकालीन राहु  अशुभ फल देने वाला हो या गोचर में अशुभ कारक हो तो निम्नलिखित उपाय करने से बलवान हो कर शुभ फल दायक हो जाता है—
रत्न धारण –गोमेद पञ्च धातु की अंगूठी में आर्द्रा,स्वाती या शतभिषा नक्षत्र  में जड़वा कर शनिवार  को  सूर्यास्त  के बाद  पुरुष दायें हाथ की तथा स्त्री बाएं हाथ की मध्यमा अंगुली में धारण करें | धारण करने से पहले ॐ  भ्रां भ्रीं भ्रों सः राहवे नमः मन्त्र के १०८ उच्चारण से इस में ग्रह प्रतिष्ठा करके धूप,दीप , नीले पुष्प,  काले तिल व अक्षत आदि से पूजन कर लें|रांगे का छल्ला धारण करना भी शुभ रहता है |


दान ,जाप –   | ॐ  भ्रां भ्रीं भ्रों सः राहवे नमः मन्त्र का १८००० की संख्या में जाप करें | शनिवार को काले उडद ,तिल ,तेल ,लोहा,सतनाजा ,नारियल  ,  रांगे की मछली ,नीले   रंग का वस्त्र इत्यादि का दान करें | मछलियों को चारा देना भी राहु शान्ति का श्रेष्ठ उपाय है |
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====केतु:——- 


रोग:—- चोट, ऑपरेशन, फ्रैक्चर, रीढ़ की हड्डी और स्नायु तंत्र सम्बंधित रोग, बुरी लत, व्यसन, पागलपन, निम्न रक्त चाप इत्यादि। वातजनित बीमारियां, रक्तदोष, चर्म रोग, श्रमशक्ति की कमी, सुस्ती, अर्कमण्यता, शरीर में चोट, घाव, एलर्जी, आकस्मिक रोग या परेशानी, कुत्ते का काटना इत्यादि.


दान:—- भूरे रंग या रंग-बिरंगा वस्त्र, कम्बल, सरसों या तिल का तेल, लोहे के बर्तन, लहसुनिया (कैट्स आई ) इत्यादि।
दिन:—-बुधवार 
मन्त्र:—– ॐ स्रां स्रीं स्रौं स: केतवे नम:।




विशेष: मन्त्रों का जप पूरे विधि-विधान से, सही समय और सही योग एवं सही मात्रा में ही होना चाहिए, अतः मन्त्र अनुष्ठान किसी विशेषज्ञ के द्वारा या उसकी देख-रेख में ही करें। 
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आइये जाने की कोनसा रत्न धारण करने से किस रोग में होगा लाभ—-


जन्म कुंडली के पहले भाव अर्थात लग्न भाव के स्वामी ग्रह से सम्बंधित रत्न धारण करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सदैव अच्छा बना रहता है। यह बात आयुर्वेदिक और ज्योतिष ग्रंथों में कही गयी गयी है। जिन जातकों के पास जन्म का सही समय न होने के कारण जन्म कुंडली न हो वे रोग की प्रकृति अथवा अपने प्रचलित नाम के अनुसार रत्न या उपरत्न धारण करके रोग मुक्त हो सकते हैं। यहाँ यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि रोगों के निदान के लिए योग्य और प्रशिक्षित डॉक्टर से उपचार कराने के साथ-साथ रत्न या उपरत्न धारण किया जाये तो रोग में शीघ्र लाभ मिलता है।


हमारे प्राचीन धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में अलग-अलग तरह के रत्न एवं मणियों का विशेष उल्लेख मिलता है। रामायण, महाभारत, गरुण पुराण, नारद पुराण, देवी भागवत, चरक सहिंता आदि ग्रंथों में मोती, माणिक्य, हीरा, स्फटिक, पन्ना, मूंगा जैसे रत्नों को धारण करने के साथ-साथ इनके चिकित्सकीय उपचार का भी वर्णन किया गया है।
भाव प्रकाश तथा रस रत्न समुच्चय जैसे प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों के अनुसार मोती, माणिक्य, स्वर्ण, रजत, मूंगा, नीलम आदि रत्नों और धातुओं की भस्म तथा पिष्टी का उपयोग विभिन्न गंभीर रोगों के उपचार में किया जाता है। वहीँ, औषध सेवन के अलावा दोषपूर्ण ग्रह और रोगों की शान्ति के लिए उचित एवं निर्दोष रत्न धारण करना भी शुभ माना गया है। 


वृहतसंहिता में कहा गया है—-


” रत्नें शुभेन शुभं भवति नृपाणामनिष्ठंशुमेन।यस्मादतः परिक्षयं देवं रत्नाश्रीतं तज्मैः।।


इन रोगों में होगा रत्नों से लाभ—–


—ह्रदय रोग, नेत्र रोग, चर्म रोग, अस्थि विकार, मिर्गी, चक्कर आना, ज्वर प्रकोप, सर दर्द आदि रोगों के निदान के लिए सूर्य से सम्बंधित रत्न “माणिक्य” धारण करना चाहिए। यदि किसी वजह से माणिक्य धारण करना संभव न हो तो इसका उपरत्न लाल हकीक, सूर्यकांत मणि या लालड़ी तामडा धारण करना चाहिए।
—-खांसी, जुकाम, मानसिक रोग, नींद न आना, तपेदिक, रक्त विकार, मुख रोग, घबराहट, बेचैनी, श्वसन संबंधी रोग, बच्चों के रोग आदि के निदान हेतु चन्द्र ग्रह से सम्बंधित रत्न “मोती” अथवा उपरत्न सफ़ेद पुखराज या चंद्रकांत मणि को धारण करना चाहिए।
—–ब्लड प्रेशर, त्वचा रोग, कमजोरी, कोढ़, पित्त विकार, शरीर में जलन, रक्तार्श, दुर्घटना आदि से बचाव के लिए मंगल ग्रह से सम्बंधित रत्न “मूंगा” अथवा उपरत्न तामडा धारण करना शुभ रहता है।
—-मानसिक विकार, त्वचा रोग, नेत्र रोग, किसी तरह की सनक, तुतलाहट,सांस नली के रोग, मिर्गी, नाक और गले के रोग आदि से बचाव के लिए बुध ग्रह से सम्बंधित रत्न “पन्ना” अथवा उपरत्न हरा जिरकॉन, हरा हकीक या फिरोजा धारण करना शुभ रहता है।
—गुल्म रोग, याददाश्त कमजोर होना,मोटापा, कर्ण रोग, पेट के रोग, आंत्र रोग, कफ जनित रोग, शरीर में सूजन, बेहोशी आना आदि के निदान हेतु गुरु अर्थात बृहस्पति ग्रह से सम्बंधित रत्न “पुखराज” अथवा उपरत्न सफ़ेद जिरकोन, सुनेला या पीला मोती धारण करना चाहिए।
—-पीलिया, अतिसार, मधुमेह, एड्स, महिलाओं के रोग, नेत्र रोग, पुरुषों के गुप्त रोग, मूत्र विकार, नपुंसकता, शारीरिक कमजोरी आदि के निदान हेतु शुक्र ग्रह से सम्बंधित रत्न “हीरा” अथवा उपरत्न श्वेत जिरकोन धारण करना चाहिए।
—-अस्थि एवं जोड़ों के विकार, वात जनित रोग, पथरी, गठिया, कैंसर, पोलियो, बवासीर, स्नायु जनित रोग, शारीरिक और मानसिक थकान, पेरालायसिस आदि के निदान के लिए शनि ग्रह से सम्बंधित रत्न “नीलम” अथवा उपरत्न नीला जिरकॉन या नीला कटेला धारण करना शुभ होता है।
—-कोढ़, कृमि रोग, कैंसर, वात जनित रोग, वाइरस से होने वाले रोग, सर्प दंश, अपस्मार आदि रोगों के निदान हेतु राहु ग्रह से सम्बंधित रत्न “गौमेद” अथवा उपरत्न काला हकीक धारण करना चाहिए।
—-एलर्जी, वाइरल ज्वर, दुर्घटना, त्वचा रोग, भूत-प्रेत कष्ट, अर्धान्गवात रोगों के निदान हेतु केतु ग्रह से सम्बंधित रत्न “लहसुनिया” अथवा उपरत्न गौदंती धारण करना शुभ होता है।
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जानिए विभिन्न ग्रहों की युतियां और उनसे होने वाले रोग रोग—-


रोग प्रायः युति कारक ग्रहों की दशार्न्तदशा के साथ-साथ गोचर में भी अशुभ हों तो ग्रह युति का फल मिलता है! इन योगों को आप अपनी कुंडली में देखकर विचार सकते हैं। ऐसा करके आप होने वाले रोगों का पूर्वाभास करके स्‍वास्‍थ्‍य के लिए सजग रह सकते हैं या दूजों की कुण्‍डली में देखकर उन्‍हें सजग कर सकते हैं। आप अपनी जन्मकुण्डली को देखें जब किसी भाव में एक से अधिक ग्रह हों या उनकी परस्पर युति हो तो जातक को क्या रोग होने की संभावना रहती है इसे बताते हैं-
—-जब गुरु-राहु की युति हो तो दमा, तपेदिक या श्वास रोग से कष्ट होगा।
—-जब गुरु-बुध की युति हो तो भी दमा या श्वास या तपेदिक रोग से कष्ट होगा।
—-जब राहु-केतु की युति हो जोकि लालकिताब की वर्षकुण्डली में हो सकती है तो बवासीर रोग से कष्ट होगा।
—–जब चन्द्र-राहु की युति हो तो पागलपन या निमोनिया रोग से कष्ट होगा।
—जब सूर्य-शुक्र की युति हो तो भी दमा या तपेदिक या श्वास रोग से कष्ट होगा।
—–जब मंगल-शनि की युति हो तो रक्त विकार, कोढ़ या जिस्म का फट जाना आदि रोग से कष्ट होगा अथवा दुर्घटना से चोट-चपेट लगने के कारण कष्‍ट होता है।
—-जब शुक्र-राहु  की युति हो तो जातक नामर्द या नपुंसक होता है।
—जब शुक्र-केतु की युति हो तो स्वप्न दोष, पेशाब संबंधी रोग होते हैं।
—-जब गुरु-मंगल या चन्द्र-मंगल की युति हो तो पीलिया रोग से कष्ट होता है।
—–जब चन्द्र-बुध या चन्द्र-मंगल की युति हो तो ग्रन्थि रोग से कष्ट होगा।
——जब मंगल-राहु या केतु-मंगल की युति हो तो शरीर में टयूमर या कैंसर से कष्ट होगा।
—जब गुरु-शुक्र की युति हो या ये आपस में दृष्टि संबंध बनाएं तो डॉयबिटीज के रोग से कष्ट होता है। 
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सभी 12 रशिया कालपुरुष के विभिन्न अंगो का प्रतिनिधित्व करती है जो निम्न है :—


१.मेष :-सर मस्तिष्क ,मुख ,सम्बंधित हड्डिया
२.वृषभ :-गर्दन ,गाल .दाया नेत्र
३.मिथुन: -कन्धा ,हाथ ,श्वासनली .दोनों बाहू
४कर्क :-ह्रदय ,छाती ,स्तन ,फेफड़ा .पाचनतंत्र ,उदर
५.सिंह :-ह्रदय ,उदर ,नाडी ,स्पाईनल ,पीठ की हड्डिया
६.कन्या :-कमर ,आंत ,लिवर ,पित्ताशय ,गुर्दे और अंडकोष
७तुला :-वस्ति नितम्ब ,मूत्राशय ,गुर्दा
८.वृश्चिक :-गुप्तेंद्रिया ,अंडकोष ,गुप्तस्थान
९.धनु :-दोनों जंघे ,नितम्ब
०.मकर :-दोनों घुटने ,हड्डियों का जोड़
१.कुम्भ :-दोनों पिंडालिया ,टाँगे
१२.मीन :-दोनों पैर .तलुए राशियों के भांति ग्रह नक्षत्र में भी स्थायी गुन दोष है जिनके आधार पर रोगों के परिक्षण में सरलता आ जाता है..
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जानिए वास्तु का हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव—-


वास्तु का भी हमारे जीवन में विशेष प्रभाव रहता है.मानसिक हालत कमजोर होने की स्थिति में हम डिप्रेशन या अवसाद का शिकार हो जाते हैं। ऐसा होने पर व्यक्ति के विचारों, व्यवहार, भावनाओं और दूसरी गतिविधियों पर असर पड़ता है। 


वास्तु शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ: समरांगण सूत्रधार, मानसार, विश्वकर्मा प्रकाश, नारद संहिता, बृहतसंहिता, वास्तु रत्नावली, भारतीय वास्तु शास्त्र, मुहूत्र्त मार्तंड आदि वास्तुज्ञान के भंडार हैं। अमरकोष हलायुध कोष के अनुसार वास्तुगृह निर्माण की वह कला है, जो ईशान आदि कोण से आरंभ होती है और घर को विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों और उपद्रवों से बचाती है। ब्रह्मा जी ने विश्वकर्मा जी को संसार निर्माण के लिए नियुक्त किया था। इसका उद्देश्य था कि गृह स्वामी को भवन शुभफल दे, पुत्र, पौत्रादि, सुख, लक्ष्मी, धन और वैभव को बढ़ाने वाला हो।


डिप्रेशन से प्रभावित व्यक्ति अक्सर उदास रहने लगता है, उसे बात-बात पर गुस्सा आता है, भूख कम लगती है, नींद कम आती है और किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता। लंबे समय तक ये हालत बने रहने पर व्यक्ति मोटापे का शिकार बन जाता है, उसकी ऊर्जा में कमी आने लगती है, दर्द के एहसास के साथ उसे पाचन से जुड़ी शिकायतें होने लगती हैं। कहने का मतलब यह है कि डिप्रेशन केवल एक मन की बीमारी नहीं है, यह हमारे शरीर को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। डिप्रेशन के शिकार किसी व्यक्ति में इनमें से कुछ कम लक्षण पाए जाते हैं और किसी में ज्यादा।


आमतौर पर शरीर में बीमारी होने पर हम उसके बायोलॉजिकल, मनोवैज्ञानकि या सामाजिक कारणों पर जाते हैं। यहां पर आज हम बीमारियों के उस पहलू पर गौर करेंगे, जो हमारे घर के वास्तु से जुड़ा है। कई बीमारियों की वजह घर में वास्तु के नियमों की अनदेखी भी हो सकती है। अगर आप इन नियमों को जान लेंगे और उनका पालन करना शुरू करेंगे तो आपको इन बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है।


जैसे वास्तु में यह माना जाता है कि अगर आप दक्षिण दिशा में सिर करके सोते हैं तो आपके स्वास्थ्य में सुधार होता है। जहां तक करवट का सवाल है तो वात और कफ प्रवृत्ति के लोगों को बाईं और पित्त प्रवृत्ति वालों को दाईं करवट लेटने की सलाह दी जाती है। 
—–सीढ़ियों का घर के बीच में होना स्वास्थ्य के लिहाज से नुकसान देने वाला होता है, इसलिए साढ़ियों को बीच के बजाय किनारे की ओर बनवाएं। 
—-इसी तरह भारी फर्नीचर को भी घर के बीच में रखना अच्छा नहीं माना जाता। इस जगह में कंक्रीट का इस्तेमाल भी वास्तु के अनुकूल नहीं होता। दरअसल घर के बीच की जगह ब्रह्मस्थान कहलाती है, जहां तक संभव हो तो इस जगह को खाली छोड़ना बेहतर होता है।
—–घर के बीचोबीच में बीम का होना दिमाग के लिए नुकसानदायक माना जाता है। 
वास्तु के नियमों के हिसाब से बीमारी की एक बड़ी वजह घर में अग्नि का गलत स्थान भी है। जैसे कि अगर ——–आपका घर दक्षिण दिशा में है, तो इसी दिशा में अग्नि को न रखें।
—–रोशनी देने वाली चीज को दक्षिण-पश्चिम दिशा में रखना स्वास्थ्य के लिए शुभ माना जाता है। 
—-घर में बीमार  व्यक्ति के कमरे में कुछ सप्ताह तक लगातार मोमबत्ती जलाए रखना भी उसके स्वास्थ्य के लिए शुभ होता है।
—-अगर घर का दरवाजा भी दक्षिण दिशा में है, तो इसे बंद करके रखें। यह दरवाजा लकड़ी का और ऐसा    होना चाहिए, जिससे सड़क अंदर से न दिखे।
—-घर में किचन की जगह का भी हमारे स्वास्थ्य से संबंध होता है। दक्षिण-पश्चिम दिशा में किचन होने से  व्यक्ति अवसाद से दूर रहता है। 
—-घर के मुख्य द्वार से यदि रसोई कक्ष दिखाई दे तो घर की स्वामिनी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है और उसके बनाए खाने को भी परिवार के लोग ज्यादा पसंद नहीं करते हैं।यदि आपकी रसोई बड़ी है तो आपको रसोई घर में बैठ कर ही भोजन करना चाहिए। इससे कुंडली में राहु के दुष्प्रभावों का शमन होता है।
—–पूरे परिवार के अच्छे स्वास्थ्य के लिए घर में दक्षिण दिशा में हनुमान का चित्र लगाना चाहिए।
—-शैया की माप के बारे में विधान है कि शैया की लंबाई सोने वाले व्यक्ति की लंबाई से कुछ अधिक होना चाहिए। 
—–पलंग में लगा शीशा वास्तु की दृष्टि से दोष है, क्योंकि शयनकर्ता को शयन के समय अपना प्रतिबिम्ब नजर आना उसकी आयु क्षीण करने के अलावा दीर्घ रोग को जन्म देने वाला होता है।
—–बेड को कोने में दीवार से सटाकर बिलकुल न रखें। कमरे में दर्पण को कुछ इस तरह रखें, जिससे लेटी अवस्था में आपका प्रतिबिम्ब उस पर न पड़े।
—–शयनकक्ष में साइड टेबल पर दवाई रखने का स्थान न हो। अनिवार्य दवाई को भी सुबह वहाँ से हटाकर अन्यत्र रख दें।फ्रिज कभी भी बेडरूम में न हो।

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