।।  जरा सोचिये…चिंतन कीजिये…।।


* विप्र, ज्योतिषी, पंडित, शास्त्री, आचार्य जी के प्रति समाज के व्यवहार का कटु सत्य लेकिन वास्तविक सत्य स्थिति।
ये कटु सत्य है पिछले .5/.. वर्षो में महंगाई कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। लेकिन नहीं बढ़ी तो बेचारे पण्डित जी की दक्षिणा ……? 


लोग आज भी बड़ी बड़ी पूजा,जागरण, अनुष्ठान, यज्ञ, महायज्ञों के संकल्प और आरती में चढ़ाने के लिये एक रूपये का सिक्का ही ढूंढ कर लाते हैं।


* समाज मे लोग दिखावे के लिए, पार्टी, मौज मस्ती, शादी विवाहोत्सव में तो .0-12 लाख रुपये सिर्फ शानौशौकत के लिए उड़ा देंते है। ढोल-बैंडबाजे वाले को छः महीने पहले बुक करके 31-51000/- हजार रुपए एक डेढ घंटे के लिये दे देंगे। 10-20 हज़ार ₹ डीजे, लाखो रूपये शराब पाने पिलाने में बर्बाद कर देंगेे। बैंकटहॉल,गार्डन बुक करने, लाइटिंग की सजावट, बैंड बाजे, समय की बर्बादी एवं फिजुल की फोटोग्राफी में लाखो खर्च कर देंते है। खाने को थोडा़ सा पर खाने की बर्बादी परंतु कैटरिंग के नाम पर लाखो खर्च कर देंते है। जो बाद मे़ पशु भी नही खाते है। रोड़ पर खुद नाचते है अौर अपनी बहन बेटियों को भी नचाते हुए हजारो लाखो रूपये दिखावे, शौख, शराब की मौज मस्ती मे लुटा देंते है। बर्बाद कर देंते है। और ये सारा मांगलिक मुहूर्त कार्यक्रम तय करने कराने वाले ब्राह्मण पंडित को जो इसका रचनाकार और धूरी है उस विप्र श्रेष्ठ, ब्राह्मण, पंडित, विद्वान, शास्त्री, आचार्य जी को मात्र 501-1100₹ में ही निपटाने का भरसक प्रयास करते है। लोग जब इस प्रकार का निम्न अभद्र व्यवहार से पूज्य ब्राह्मण विप्र श्रेष्ठ, पंडित, विद्वान, शास्त्री, आचार्य जी का अपमानित करेंगे तो कौन ब्राह्मण का सुपुत्र यह संस्कार कर्मकांड क्षेत्र को अपनायेगा??*


*नोट- कुछ दिन में ऐसा दिन आने वाला है कि विप्र, ब्राह्मण, विद्वान, शास्त्री, आचार्य जी इस पूजा पाठ, प्रवचन, कर्मकांड के कार्य को करना छोड़ देंगे। समाज में लोगों की ऐसी मानसिकता रही तो कुछ दिन में कोई ब्राह्मण दान भी नहीं लेगा और ये मानसिकता समाज छोड़ दे कि विप्र, ब्राह्नण, शास्त्री, आचार्य जी कभी गरीब था/ है/ रहेगा। भागवतपुराण में साफ लिखा है कि पृथ्वी के एक मात्र देवता ब्राह्मण विप्र, विद्वान, शास्त्री, आचार्य जी ही है। लोग ब्राह्मण विप्र, विद्वान, शास्त्री, आचार्य जी को घटिया से घटिया सामग्री व अनुपयोगी वस्त्र दान करते हैं और उचित दक्षिणा नहीं देते। 


उपरोक्त लिखे हुए कड़वे सत्य से विद्वान भलीभांति परिचित हैं और समाज का प्रत्येक वर्ग भी इस से परिचित है।
परंतु मैं आपका मार्गदर्शन वैदिक परंपरा में “ऋत्विक वरण” संदर्भ में अर्थात् आप विद्वान आचार्य की सम्मान किस प्रकार करें करा रहा हूं। यजमानों के जिज्ञासा के मध्यनजर एवं समाधान हेतु उपरोक्त समस्या का निदान- समाधान करने हेतु विशेष अनुरोध पर “ऋत्विक वरण” अपने आचार्य, विद्वान, ब्राह्मण की दक्षिणा सम्मान संदर्भ में वैदिक पद्धति का एक संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है।


किसी भी कार्य की विधिवत संपन्नता संपूर्णता के लिए अत्यंत आवश्यक है कि किसी सुविज्ञ व्यक्ति विद्वान की अध्यक्षता में वह कार्य संपन्न किया जाए । 


इसलिए प्राचीन महर्षियों ने प्रत्येक वैदिक यज्ञ हवन संस्कारों, विशिष्ट यज्ञों, महायज्ञों को करने से पूर्व “ऋत्विक वरण” आचार्य वरण का विधान किया है। साथ ही वह किस प्रकार किया जाए यह भी निर्देश दिया है। 


यह परंपरा अति प्राचीन और वैदिक है जो मर्यादा पुरुषोत्तम राम से पूर्व की है। इसका प्रमाण वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, मनुस्मृति में मिलता है।


विशेष रूप से इस संदर्भ में आर्य समाज के संस्थापक, युगप्रवर्तक, स्वतंत्रता का प्रथम शंखनाद करने वाले आदित्य ब्रह्मचारी, वेदों के प्राकांड विद्वान, राष्ट्रपितामह महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी संस्कार विधि के सामान्य प्रकरण में लिखते हैं—


” ऋत्विग्वरणार्थ कुंडलाड़्. गुलीयकवासांसि ।।
अर्थात ऋत्विक वरन (अपने विप्र, ब्राह्मण, विद्वान, आचार्य की दक्षिणा सम्मान हेतु ) के लिए सोने के कुंडल और अंगूठी तथा उत्तम से उत्तम वस्त्र बनवाने चाहिए । 


इसी संदर्भ के अंत में महर्षि दयानंद सरस्वती लिखते हैं–
सर्वेषु पक्षेषु आदित्येष्टौ धेनु।
वरार्थ चतस्रो गाव: ।। 
अर्थात् : यजमान को सब प्रकार के यज्ञ, हवन, संस्कारों, महायज्ञों की संपन्नता संपूर्णता के लिए आठ गाय या आठ गायों के बराबर धन कम से कम दक्षिणा आचार्य को प्रदान करनी चाहिए । 


आचार्य का वरण करने के लिए भी कम से कम 4 गाय के मूल के बराबर धन होना चाहिए।


अत: 
विद्वान, आचार्य, ब्राह्मण के प्रति इन पंक्तियों एवं उपरोक्त कड़वे व्यवहार का अवलोकन करते हुए प्रत्येक यजमान यह भाव मन में अवश्य रखें कि वह अपने विद्वान आचार्य को वरण में और कार्यक्रम के अंत में दक्षिणा में अधिक से अधिक यथाशक्ति धन देकर उनका सम्मान सत्कार करें। 


ध्यान रखें जिस उदारता का भाव आप अपने परिवार के लिए अपने लिए अन्य व्यवहार करते हुए प्रदर्शित करते है प्रकट करते है। उससे भी अधिक अपने विद्वान आचार्य के सम्मान में उतनी ही उदारता श्रेष्ठ व्यवहार प्रदर्शित करें । 
जिससे विद्वान, ब्राह्मण, आचार्य वेद विद्या के प्रचार प्रसार और कर्मकांड को विधिवत करते हुए धर्म की रक्षा में निरंतर संलग्न और समर्पित रहे।


गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी महाराज ने यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कार्य के संदर्भ में कुछ इस प्रकार कहा है—


नायं लोकम अस्ययज्ञस्य कुतोअन्स: कुरूसतम् ।।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
शुभास्ते संतु पंथान । 
तव वर्त्मनि वर्ततां शुभम ।।


शुभेच्छु। 


एक विप्र पुत्र 

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